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________________ पंचाचाराधिकार:] [२६५ विचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसानां वर्जनं परिहारो दर्शनविनयः समासेनेति ॥३६॥ जे अत्थपज्जया खलु उवदिट्ठा जिणवरेहि सुदणाणे । ते तह रोचेदि णरो दंसणविणयो हवदि एसो॥३६६॥ येऽर्थपर्याया जीवाजीवादयः सूक्ष्मस्थूलभेदेनोपदिष्टाः स्फुटं जिनवरैः श्रुतज्ञाने द्वादशांगेषु चतुर्दशपष. तान पदार्थास्तथैव तेन प्रकारेण याथात्म्येन रोचयति नरो भव्यजीवो येन परिणामेन स एष दर्शनविनयो ज्ञातव्य इति ॥३६६॥ ज्ञानविनयं प्रतिपादयन्नाह काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव पिण्हवणे । वंजणपत्थतदुभयं विणओ णाणम्हि अट्ठविहो ॥३६७॥ द्वादशांगचतुर्दशपूर्वाणां कालशुद्ध्या पठनं व्याख्यानं परिवर्तनं वा । तथा हस्तपादौ प्रक्षाल्य पर्यंकेऽवस्थितस्याध्ययनं । अवग्रहविशेषेण पठनं । बहुमानं यत्पठति यस्माच्छृणोति तयोः पूजागुणस्तवनं । तथैवा से दर्शन विनय है। भावार्थ-शंकादि चार दोषों का त्याग, उपग्रहन आदि चार अंग जो विधिरूप हैं उनका पालन करना तथा पंच परमेष्ठी की भक्ति आदि करना यही सब दर्शन की विशुद्धि को करनेवाला दर्शनविनय है। गाथार्थ-जिनेन्द्र देव ने आगम में निश्चित रूप से जिन द्रव्य और पर्यायों का उपदेश किया है, उनका जो मनुष्य वैसा ही श्रद्धान करता है वह दर्शन विनयवाला होता है ॥३६६॥ प्राचारवृत्ति-सूक्ष्म और बादर के भेद से जिन जीव अजीव आदि पदार्थों का जिनेन्द्र व ने द्वादशांग और चतुर्दशपूर्व रूप श्रुतज्ञान में स्पष्टरूप से उपदेश दिया है, जो भव्य जीव उन पदार्थों का उसी प्रकार से जैसे का तैसा विश्वास करता है, तथा जिस परिणाम से श्रद्धान करता है वह परिणाम ही दर्शनविनय है। ज्ञानविनय का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-काल, उपधान, बहुमान, अनिलव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय-विनय करना, यह ज्ञानसंबंधी विनय आठ प्रकार का है ।।३६७।। प्राचारवृत्ति-द्वादशांग और चतुर्दश पूर्वो को कालश द्धि से पढ़ना, व्याख्यान करना अथवा परिवर्तन-फेरना कालविनय है। उन्हीं ग्रन्थों का (या अन्य ग्रन्थों का) हाथ पैर धोकर पर्यकासन से बैठकर अध्ययन करना विनयशुद्धि नाम का ज्ञानविनय है । नियम विशेष लेकर पढ़ना उपधान है । जो ग्रन्थ पढ़ते हैं और जिनके मुख से सुनते हैं उस पुस्तक और उन गुरु इन दोनों को पूजा करना और उनके गुणों का स्तवन करना बहुमान है। उसी प्रकार से जिस ग्रन्थ को पढ़ते हैं और जिनसे पढ़ते हैं उनका नाम कीर्तित करना अर्थात् उस ग्रन्थ या उन गुरु के नाम को नहीं छिपाना यह अनिह्नव है । शब्दों को शुद्ध पढ़ना व्यंजनशुद्ध विनय है। अर्थ शुद्ध करना अर्थशुद्ध विनय है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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