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________________ २६४] [मूलाचारे पुराणस्य कर्मणः क्षपणं विनाशः, क्षेपणं, निर्जरणं, शोधनं, धावनं, पूच्छणं, निराकरणं, उत्क्षेपणं, छेदन द्वैधीकरणमिति प्रायश्चित्तस्यैतान्यष्टौ नामानि ज्ञातव्यानि भवन्तीति ॥३६३।। विनयस्य स्वरूपमाह दसणणाणेविणो चरित्ततवओवचारिओ विणओ। पंचविहो खलु विणो पंचमगइणायगो भणियो॥३६४॥ दर्शने विनयो ज्ञाने विनयश्चारित्रे विनयस्तपसि विनय: औपचारिको विनय: पंचविधः खलु विनय: पंचमीगतिनायक: प्रधानः भणितः प्रतिपादित इति ॥३६४॥ दर्शनविनयं प्रतिपादयन्नाह उवगृहणादिया पुव्वुत्ता तह भत्तिादित्रा य गुणा। संकादिवज्जणं पि य दंसणविणो समासेण ॥३६॥ उपगू हनस्थिरीकरणवात्सल्यप्रभावनाः पूर्वोक्ताः । तथा भक्त्यादयो गुणा: पंचपरमेष्ठिभक्त्यानुरागस्तेषामेव पूजा तेषामेव गुणानुवर्णनं, नाशनमवर्णवादस्यासादनापरिहारो भक्त्यादयो गुणाः । शंकाकांक्षा आचारवृत्ति-पुराने कर्मों का क्षपण-क्षय करना अर्थात् विनाश करना, क्षेपणदूर करना, निर्जरण-निर्जरा करना, शोधन ·-शोधन करना, धावन-धोना, पुंछन-पोछना अर्थात् निराकरण करना, उत्क्षेपण-फेंकना, छेदन-दो टुकड़े करना इस प्रकार ये प्रायश्चित्त के ये आठ नाम जानने चाहिए। अब विनय का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तपोविनय और औपचारिक विनय यह पाँच प्रकार का विनय पंचम गति कोप्राप्त करने वाला नायक कहा गया है।॥३६४।। प्राचारवत्ति-दर्शन में विनय, ज्ञान में विनय, चारित्र में विनय, तप में विनय और औपचारिक विनय यह पाँच प्रकार का विनय निश्चित रूप से पाँचवीं गति अर्थात मोक्षगति में ले जाने वाला प्रधान कहा गया है, ऐसा समझना। अर्थात् विनय मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है। दर्शन विनय का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-पूर्व में कहे गये उपग्रहन आदि तथा भक्ति आदि गुणों को धारण करना और शंकादि दोष का वर्जन करना यह संक्षेप से दर्शन विनय है ।।३६५।। आचारवृत्ति-उपगृहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये पूर्व में कहे गये हैं । तथा पंच परमेष्ठियों में अनुराग करना, उन्हीं की पूजा करना, उन्हीं के गुणों का वर्णन करना, उनके प्रति लगाये गये अवर्णवाद अर्थात् असत्य आरोप का विनाश करना, और उनको आसादना अर्थात् अवहेलना का परिहार करना -ये भक्ति आदि गुण कहलाते हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा और अन्य दृष्टि मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा, इनका त्याग करना यह संक्षेप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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