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तत्थ झमाणि चत्तारि सिक्खावदाणि, तत्थ पढमे समाइयं, बिदिए पोसहोवासयं, तदिए अतिथिसंविभागो, चउत्थे सिक्खावदे पच्छिम सल्लेहणामरणं चेदि । इच्चेदाणि चक्खारि सिक्खावदाणि ।
दसण वय सामाइय पोसह सचित्त राइभत्त ।
बंभारंभ परिग्गह अणुमण मुद्दिट्ट देसविरदो य' ॥" चारित्रपाहुड में
पंचेवणुव्वयाइ गुणव्वयाइ हवंति तह तिण्णि । सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ॥२३॥ दिसिविदिसमाण पढम अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिणि ।।२५।। सामाइयं च पढमं विदियं च तेहव पोसह भणियं । तइयं च अतिहिपुज्जं च उत्थ सल्लेहणा अंते ॥२६॥ दसण वय सामाइय पोसह सचित्त राइभत्त य ।
बंभारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिट्ट देसविरदो य ।।२२।।
इस प्रकार से श्री गौतमस्वामी ने पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत ये बारह व्रत श्रावक के माने हैं। इसमें से अणुव्रत में तो कोई अन्तर है नहीं, गुणव्रत में दिशविदिशप्रमाण, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूजा और सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत हैं।
दर्शन, व्रत, सामायिक आदि ये ग्यारह प्रतिमा हैं। पूर्व में जैसे श्री गौतमस्वामी ने प्रतिक्रमण में इनका क्रम रखा है, वही क्रम श्री कुन्दकुन्ददेव ने अपने चारित्रपाहुड ग्रन्थ में रखा है। इसके अनन्तर उमास्वामी आदि आचार्यों ने गणव्रत और शिक्षाव्रत में क्रम बदल दिया है। तथा सल्लेखना को बारह व्रतों से अतिरिक्त में लिया है। इसी प्रकार प्रतिक्रमण में श्री गौतमस्वामी ने बारह तपों में जो क्रम रक्खा है, वही क्रम मूलाचार में देखा जाता है। तथा--"तवायारो बारसविहो, अब्भतरो छव्विहो बाहिरोछविहो चेदि।" तत्थ बाहिरो अणसणं आमोदरियं वित्तिपरिसंखा, रसपरिच्चाओ सरीरपरिवाओ विवित्त सयणासणं चेदि । तत्थ अब्भतरो पायच्छित्तविणओ वेज्जावच्चं सज्झाओ झाणं विउस्सग्गो चेदि।"
__ तप आचार बारह प्रकार का है, अभ्यन्तर छह प्रकार का और बाह्य छह प्रकार का। उसमें बाह्य तप अनशन, अवमौदर्य, वृत्त परिसंख्यान, रस परित्याग, शरीर परित्यागकायोत्सर्ग और विविक्तशयनासन के भेद वाला है। और अभ्यंतर तप प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान तथा व्युत्सर्ग के भेद से छह भेद रूप है।
१.. पाक्षिक प्रतिक्रमण (धर्माध्यान दीपक)। २. पाक्षिक प्रतिक्रमण ।
आद्य उपोद्घात / ३३
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