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________________ पंचाचाराधिकारः] [२७६ चाथिनो न तस्य, सावद्यरहितं च त्यक्तमित्युच्यते । अथवा वियत्त आचार्य इत्युच्यते। प्रतिसेवयतीति प्रतिसेवी। स प्रत्येकमभिसम्बध्यते । यांचया प्रतिसेवी समनुज्ञापनया प्रतिसेवी अनात्मभावप्रतिसेवी, निरवद्यस्य श्रामण्येयोग्यस्य त्यक्तस्याचार्यस्य वा प्रतिसेवी। समानो धर्मोऽनुष्ठानं यस्य सधर्मा तस्य यदुपकरणं पुस्तकपिच्छिकादि अनन्यभाव-अदुष्ट भाव या अनात्मभाव रखना अर्थात् जो परवस्तु-परके उपकरण कण्मडलु, शास्त्र आदि लिये हैं उनमें आत्मभाव-अपनापन नहीं रखना । व्यक्तपरिसेवना-त्यक्त अर्थात् जो मुनिपने के योग्य है और जिसके अन्य कोई इच्छुक नहीं हैं ऐसी सावद्यरहित अर्थात् निर्दोष वस्तु त्यक्त कहलाती है । गाथा से 'वियत्त' पाठ निकाल कर उसका 'आचार्य' अर्थ करना चाहिए। इस प्रकार से श्रमण योग्य वस्तु का अथवा आच का जो अनुकूलतया सेवन है वह व्यक्त प्रतिसेवना है । अथवा निर्दोष वस्तु या आचार्य के अनुकूल सेवन करनेवाला-आश्रय लेनेवाला मुनि त्यक्तप्रतिसेवी है। यह प्रतिसेवी शब्द उपर्युक्त भावनाओं के साथ भी लगा लेना। जैसे, याचनापूर्वक उपकरण आदि वस्तु का प्रतिसेवन करना । अनुमतिपूर्वक उनकी वस्तु का प्रतिसेवन करनाप्रयोग करना । अन्य के शास्त्र आदि को अपनेपन की भावना से रहित, अनात्मभाव से, सेवन या उपयोग करना तथा निर्दोष, मुनि अवस्था के योग्य त्यक्त-वस्तु का अथवा आचार्य का प्रतिसेवन करना-ये चार भावनाएं हुई। सार्मिकोपकरण अनुवीचिसेवन–समान है धर्म अर्थात् अनुष्ठान जिनका वे सधर्मा या सहधर्मी मुनि कहलाते हैं। उनके पुस्तक, पिच्छिका आदि उपकरणों का अनुवीचि अर्थात् आगम के अनुसार सेवन करना। ये पाँच भावनाएँ तृतीय महाव्रत की हैं । अर्थात् इन भावनाओं से अचौर्यव्रत परिपूर्ण होता है। विशेषार्थ-श्री गौतमस्वामी ने कहा है कि अदेहणं भावणं चावि ओग्गहं च परिग्गहे। संतुट्ठो भत्तपाणेसु तदियं वदमस्सिदो॥ अर्थात् तृतीय व्रत का आश्रय लेने वाले जीव के ये पाँच भावनाएँ होती हैं देहधनंशरीर ही मेरा धन-परिग्रह है और कुछ मेरा परिग्रह नहीं है । भावनां चापि-शरीर में भी ऐसी भावना करना कि यह अशुचि और अनित्य है इत्यादि । परिग्रहे अवग्रहं—परिग्रह के विषय में त्याग की भावना करना। भक्तपानेषु संतुष्ट:-भोजन और पान में संतोष धारण करता हूँ। श्री उमास्वामी ने शून्यागारवास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भक्ष्यशुद्धि और सहर्मियों में अविसंवाद ये पाँच भावनाएँ मानी हैं। जिनका स्पष्टीकरण-गिरि, गुफा, वृक्ष की कोटर आदि में निवास करना; परकीय-छोड़े या छुड़ाये हुए में रहना; दूसरों को नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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