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________________ ३६०] हिंसादिदोस विजुवं सच्चमकप्पियवि' भावदो भावं । श्रवम्मेण दु सच्चं जाणसु पलिदोवमादीया ॥३१३॥ हिंसा आदिर्येषां दोषाणां ते हिंसादयस्तैवियुक्तं विरहितं हिंसादिदोषवियुक्तं । हिंसास्तन्याब्रह्मपरिग्रहादिग्राहकवचनरहितं सत्यं । अकल्पितमपि भावतोऽयोग्यमपि भावयतः परमार्थतः सत्यं तत् । केनचित् पृष्टस्त्वया चौरो दृष्टो न मया दृष्ट एवं वक्तव्यं । यद्यपि वचनमेतदेवासत्यं तथापि परमार्थतः सत्यं हिंसादिदोषरहितत्वात् । यथा येन येन परपीडोत्पद्यते परलोकं प्रतीहलोकं च प्रति, तत्तद्वचनं सत्यमपि त्याज्यं रागद्वेषसहितत्वात् । सत्यमपि हिंसादिदोषसहितं न वाच्यमिति भावसत्यं । औपम्येन च युक्तं यद्वचनं तदपि सत्यं जानीहि । यथा पल्योपमादिवचनं । उपमामात्रमेतत् । न हि कुशलो योजनमात्रः केनापि रोमच्छेदैः पूर्यते । एवं सागरो रज्जुः प्रतरांगुलं सूच्यंगुलं घनांगुलं श्रेणी लोकप्रतरो लोकश्चन्द्रमुखी कन्या इत्येवमादयः शब्दाः उपमानवचनानि उपमासत्यानीति वाच्यानि । न तत्र विवादः कार्यः । इत्येतद्दशप्रकारं सत्यं वाच्यं । [मूलाचारे तथा सन्धिनामतद्धितसमासाख्यातकृदौणादियुक्तं, पक्षहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनसहितं छलजातिनिग्रहस्थानादिविवर्जितं, लोकसमयस्ववचनविरोधरहितं प्रमाणोपपन्नं नैगमादिनयपरिगृहीतं, जातियुक्ति गाथार्थ - हिंसा आदि दोष से रहित भाव से अकल्पित भी वचन भाव सत्य हैं और उपमा से कहे गये पल्योपम आदि उपमा सत्य हैं ॥ ३१३ ॥ श्राचारवृत्ति - हिंसा, चौर्य, अब्रह्म, परिग्रह आदि को ग्रहण करने वाले वचनों से रहित वचन हिंसादि दोष रहित हैं, अकल्पित भी हैं अर्थात् अयोग्य भी वचन परमार्थ से सत्य होने से भाव सत्य हैं । जैसे किसी ने पूछा, 'तुमने चोर देखा है तो कहना कि मैंने नहीं देखा है' यद्यपि ये वचन असत्य ही हैं फिर भी परमार्थ से सत्य हैं क्योंकि हिंसादि दोषों से रहित हैं । इसी तरह जिन किन्हीं वचनों से इहलोक और परलोक के प्रति पर को पीड़ा उत्पन्न होती है अर्थात् जिन वचनों से इहलोक परलोक बिगड़ता है और पर को कष्ट होता है वे सभी वचन सत्य होकर भी त्याग करने योग्य हैं, क्योंकि रागद्वेष से सहित हैं । तात्पर्य यह है कि हिंसादि दोषों से सहित वचन सत्य भी हों तो भी नहीं बोलना चाहिए। इसी का नाम भावसत्य है । उपमा से युक्त जो वचन हैं वे भी सत्य हैं ऐसा समझो। जैसे पल्योपम आदि वचन; ये वचन उपमा मात्र ही हैं। क्योंकि किसी के द्वारा भी योजन प्रमाण का गड्ढा रोमों के अतीव सूक्ष्म-सूक्ष्म टुकड़ों से भरा नहीं जा सकता है । इसी प्रकार से सागर, राजू, प्रतरांगुल, सूच्यं-' गुल, घनांगुल, श्रेणी, लोकप्रतर और लोक ये सभी उपमावचन हैं। तथा 'चन्द्रमुखी कन्या इत्यादि वचन भी उपमान वचन होने से उपमासत्य वचन हैं। इसमें विवाद नहीं करना चाहिए। इस प्रकार से यहाँ तक दश तरह के सत्यों का वर्णन हुआ। Jain Education International तात्पर्य यह है कि सन्धि, नाम- लिंग, तद्धित, समास, आख्यात, कृदन्त और णादि से युक्त अर्थात् व्याकरण से शुद्ध, पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन से सहित - अर्थात् न्याय ग्रन्थ के आधार से पाँच अवयव वाले अनुमान वाक्य रूप, छल, जाति, निग्रह स्थान आदि दोषों से वर्जित अर्थात् तर्क ग्रन्थों में कथित इन छल आदि दोषों से रहित, लोक क सच्चमकमविजमभा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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