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________________ ૨૫૬ भाषा समितिस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह- सच्चं सच्चमो अलियादीदोसवज्जमणवज्जं । वदमाणस्सणवीची भासासमिदी हवे सुद्धा ॥३०७॥ सच्चं सत्यं स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षयास्ति, परद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया नास्ति, उभयापेक्षयास्ति च नास्ति च अनुभयापेक्षयावक्तव्यमित्येवमादि वदतोऽवितथं वचनं । तथा प्रमाणनयनिक्षेपैर्वदतः सत्यं वचनं । असच्चमोसं— असत्यमृषा यत्सत्यं न भवति, अनृतं च न भवति सामान्यवचनं । अलीको-मृषावाद आदियेषां दोषाणां ते व्यलीकादिदोपास्तैर्वजितं व्यलीकादिदोपवर्जितं परप्रतारणादिदोषरहितं । अनवज्जं - अनवद्यं हिंसादिपापागमनवचनरहितं । इत्येवं सूत्रानुवीच्या प्रवचनानुसारेण वाचनापृच्छनानुप्रेक्षा । दिद्वारेणान्वेनापि धर्मकार्येण वदतो भाषासमितिर्भवेच्छुद्धेति ॥ ३०७ ॥ सत्यस्वरूपं विवृण्वन्नाह— जमवदसम्मदठवणा णामे रूवे पडुच्चसच्चे य । संभावणववहारे भावे' ओपम्मसच्चे य ॥ ३०८ ॥ [मूलाचारे ra भाषा समिति का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ -असत्य आदि दोषों से वर्जित निर्दोष, ऐसा सत्य और असत्यमृषा वचन आगम के अनुकूल बोलते हुए मुनि के निर्दोष भाषासमिति होती है ॥३०७॥ Jain Education International आचारवृत्ति - प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से अस्ति रूप है वही वस्तु परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से नास्ति रूप है । स्वपर की अपेक्षा से अस्ति और नास्ति इस तृतीय भंग रूप है। अनुभय - स्वपर की अपेक्षा नहीं करने से वही वस्तु अवक्तव्य है । इत्यादि सप्तभंगी रूप या ऐसे ही अन्य भी यथार्थ वचन बोलना सत्य है । तथा प्रमाण, नय और निक्षेपों के द्वारा वचन बोलना भी सत्य है । जो सत्य भी नहीं है और असत्य भी नहीं है ऐसे सामान्य वचन असत्यमृषा अर्थात् अनुभवचन हैं । ऐसे सत्य और अनुभय वचन बोलना भाषासमिति है । अलीक -- झूठवचन आदि दोषों से रहित अर्थात् पर को ठगने आदि के वचनों से रहित और हिंसा आदि पाप का आगमन कराने वाले वचनों से रहित ऐसे निर्दोष वचन बोलना । सूत्र के अनुसार अर्थात् आगम के अनुकूल वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा आदि के द्वारा या अन्य भी किसी धर्म कार्य के निमित्त बोलना या अनुभयवचन बोलना अथवा शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने रूप, उनके विषय में प्रश्न रूप या अनुप्रेक्षा आदि रूप वचन बोलना अथवा अन्य भी किसी धर्म कार्य रूप वचन बोलना - यह निर्दोष भाषासमिति है । अब सत्य का स्वरूप बतलाते हैं गाथार्थ - जनपद, सम्मत, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत्य, संभावना, व्यवहार, भाव और उपमा इनके विषय में वचन सत्यवचन हैं । । ३०८ || १ क 'वेणोप' । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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