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________________ २५४] [मूलाचारे लोकयता सम्यक्पश्यता स्थलास्थलजीवानप्रमतेन यत्नपरेण श्रुतशास्त्रार्थ स्मरता परिणुद्धमनोवाक्कायक्रियेण स्वाध्यायध्यानोपयुक्तेन सता सदा भवति गन्तव्यमिति ।।३०३।। पुनरपि एलोकत्रयेण मार्गशुद्धिस्वरूपप्रतिपादनायाह-- सयडं जाण जुग्गं वा रहो वा एवमादिया। बहुसो जेण गच्छंति सो मग्गो फासुओ हवे ॥३०४॥ शकटं वलीवादियुक्तं काष्ठमयं यंत्रं । यानं मत्तवारणयुक्तं पल्यङ्कजातं, हस्त्यश्वमनुष्यादिभिरूयमान युग्यं पीठिकादिरूपं मनुष्यद्वयेनोहयमानं । रथो विशिष्टचक्रादियुक्तो मुद्गरभुपुंढितोमरादिप्रहरण अर्थात् चार हाथ प्रमाण तक पृथ्वी पर स्थित स्थूल और सूक्ष्म जीवों को सम्यक् प्रकार से अवलोकन करते हुए, उनकी रक्षा करते हुए सावधानीपूर्वक गमन करे। वह श्रुत और शास्त्रों के अर्थ का स्मरण करते हुए, मन-वचन-काय को निर्मल बनाकर, अपने उपयोग को स्वाध्याय और ध्यान में उपयुक्त-तत्पर रखते हुए ही गमन करे। भावार्थ-मुनि तीर्थयात्रा, देव वन्दना, गुरु वन्दना, साधुओं की सल्लेखना या गुरु के पास शास्त्र पढ़ना, सुनना तथा उनके पास प्रतिक्रमण करना आदि प्रयोजन के निमित्त से ही गमन करते हैं। व्यर्थ ही टहलने आदि के हेतु से नहीं चलते हैं। पहले ये मुनि पिछली रात्रि में अपररात्रिक स्वाध्याय करके रात्रिक प्रतिक्रमण करते हैं और पौर्वाह्निक देववन्दना-सामायिक करते हैं। अनन्तर ही जब विहार करते हैं, वे अपने शयन के स्थान का भी पिच्छिका से परिशोधन करके पाटा, चटाई, घास आदि को देख-शोधकर एक तरफ करके बाहर निकलते हैं। चलते समय मार्ग में अपने उपयोग को धर्मध्यान में तन्मय रखते हुए गमन करना होता है, न कि इधर-उधर देखते हुए या मनोरंजन करते हुए । जीवरक्षा हेतु चार हाथ आगे की जमीन देखते हुए और जीवदया पालते हुए चलना ही ईर्यासमिति है। इस गाथा के द्वारा आचार्य ने प्रकाशशुद्धि, उपयोगशुद्धि और आलम्बनशुद्धि का वर्णन कर दिया है । आगे मार्गशुद्धि पर प्रकाश डाल रहे हैं। पुनरपि तीन श्लोक के द्वारा मार्गशुद्धि का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-बैलगाड़ी, अन्य वाहन, पालकी या रथ अथवा ऐसे ही और भी अनेकों वाहन जिस मार्ग से बहुत बार गमन कर जाते हैं वह मार्ग प्रासुक है ॥३०४॥ प्राचारवृत्ति—बैल आदि से युक्त काठी का यंत्र-वाहन बैलगाड़ी है। इसे ही शकट कहते हैं। मत्त हाथी पर रखे हुए हौदा आदि यान हैं । अथवा हाथी-घोड़े या मनुष्य आदि द्वारा ले जाये जानेवाले यान नाम के वाहन हैं। दो मनुष्यों के द्वारा ले जाये जानेवाले पालकी, डोली आदि युग्य हैं। विशेष चक्र—पहिए आदि से युक्त को रथ कहते हैं। इसमें मुद्गर भष ढितोमर आदि शस्त्र भरे रहते हैं और ये उत्तम जाति के घोड़ों आदि द्वारा ले जाये जाते हैं। इसी प्रकार के और भी वाहन हैं। वे सभी अनेक बार जिस मार्ग से चलते रहते हैं वह मार्ग प्रासुक हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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