________________
पंचाचाराधिकारः]
[२५३ मग्गुज्जोवुवोगालंबणसुद्धीहि इरियदो मुणिणो।
सुत्ताणुवीचि भणिया इरियासमिदी पवयणम्मि ॥३०२॥
मग्ग-मार्गः पन्थाः। उज्जोव---उद्योतश्चक्षरादित्यादिप्रकाशः। उवओग---उपयोगो ज्ञानदर्शनविषयो यत्नः । आलंवण-देवतानिर्ग्रन्थयतिधर्मादिकारणं । एतेषां शुद्धयस्ताभिर्मार्गोद्योतोपयोगालम्बनशुद्धिभिःईर्यतो गच्छतो मुनेः सूत्रानूवीच्या प्रायश्चित्तादिसूत्रानुसारेण प्रवचने ईर्यासमितिर्भणिता गणधरदेवादिभिर्भणितेति शेषः ॥२०२॥
तावद्गमनं विचार्यत उत्तरगाथयेति
इरियावहपडिवण्णेणवलोगंतेण होदि गंतव्व।
पुरदो जुगप्पमाणं सयापमत्तेण संतेण ॥३०३॥
कैलाशोर्जयन्तचम्पापावादितीर्थयात्रासंन्यासदेवधर्मादिकारणेन शास्त्रश्रावणादिकेन वा सप्रतिक्रमणश्रवणादिप्रयोजनेन वोदिते सवितरि प्रकाशप्रकाशिताशेषदिगन्ते विशुद्धदृष्टिसंचारे विशुद्धसंस्तरप्रदेशे ईर्यापथमार्ग प्रतिपन्नेन समीहमानेन कृतस्वाध्यायप्रतिक्रमणदेववन्दनेन पुरतोऽग्रतो युगमात्रं हस्तचतुष्टयप्रमाणमव
गाथार्थ मार्ग में प्रकाश, उपयोग और अवलम्बन की शुद्धि से गमन करते हुए मुनि के सूत्र के अनुसार आगम में ईर्या समिति कही गयी है ॥३०२॥
प्राचारवृत्ति-चलने का रास्ता मार्ग है। चक्षु से देखना और सूर्य का प्रकाश होना आदि उद्योत है। ज्ञानदर्शन विषयक प्रयत्न उपयोग है और देववन्दना, निर्ग्रन्थ यतियों की वन्दना एवं धर्म आदि का निमित्त होना आलम्बन है। इनकी शुद्धियाँ अर्थात् आगम के अनुकूल प्रवृत्तियाँ होना चाहिए।
इन मार्ग शुद्धि, प्रकाश शुद्धि, उपयोग शुद्धि और आलम्बन शुद्धि के द्वारा जो मुनि प्रायश्चित्तादि सूत्र के अनुसार गमन करते हैं उसे ही प्रवचन में गणधर देव आदि महर्षियों ने ईर्या समिति कहा है।
अब अगली गाथा द्वारा गमन के विषय में विचार करते हैं
गाथार्थ-ईर्यापथपूर्वक हमेशा प्रमादरहित होते हुए चार हाथ प्रमाण भूमि को सामने देखते हुए चलना चाहिए ॥३०३॥
प्राचारवृत्ति-कैलाश पर्वत, ऊर्जयंतगिरि, चंपापुरी, पावापुरी आदि तीर्थों की यात्रा के लिए, मुनियों के संन्यास के देखने या कराने के लिए, देवदर्शन या वन्दना के लिए, अन्य किसी धर्म आदि कारणों से अथवा शास्त्र सुनने या सुनाने, पढ़ने-पढ़ाने आदि प्रयोजन से अथवा प्रतिक्रमण को गुरु से सुनना आदि कार्यों के निमित्त से मुनि को गमन करना चाहिए। सूर्य का उदय हो जाने पर जब सभी दिशाएँ प्रकाश से प्रकाशित हो जाती हैं और अपनी दृष्टि का विशुद्ध संचार हो जाता है अर्थात् नेत्रों से स्पष्ट दिखने लगता है उस समय संस्तर प्रदेशसोने के स्थान में संस्तर अर्थात् पाटा, चटाई आदि का शोधन कर चुकने पर, ईर्यापथपूर्वक मार्ग में चलने की इच्छा रखते हुए, जिन्होंने अपररात्रिक स्वाध्याय, रात्रिक-प्रतिक्रमण और पौर्वाह्निक देववन्दना कर ली है ऐसे मुनि को चाहिए कि वह आगे चार हाथ प्रमाण पृथ्वी को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org