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टीका करते समय जो प्रतियाँ मिलीं उनमें उतनी ही गाथाएँ थीं या अन्य कोई कारण था, कौन जाने !
श्री जयसेनाचार्य ने तो प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ और समाप्ति के समय बहुत ही जोर देकर उन अधिक गाथाओं को श्री कुन्दकुन्ददेव कृत सिद्ध किया है | 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ का उदाहरण देखिए
प्रथमतस्तावत्
"इंदसयवंदियाण"
मित्यादिपाठक्रमेणेकादशोत्तरशतगाथागमः पंचास्तिकाय षड्द्रव्य-प्रतिपादनरूपेण प्रथमो महाधिकारः, अथवा स एवामृतचन्द्रटीकाभिप्रायेण त्र्यधिकशतपर्यन्तश्च । तदनन्तरं "अभिवंदिऊण सिरसा" इत्यादि पंचाशद्गाथाभिः सप्ततत्त्व-नवपदार्थ - व्याख्यानरूपेण द्वितीयो महाधिकारः अथ च स एवामृतचन्द्र- टीकाभिप्रायेणाष्टाचत्वारिंशद्-गाथापर्यन्तश्च । अथानन्तरं जीवस्वभावो इत्यादि विशतिगाथाभिर्मोक्षमार्ग - मोक्षस्वरूपकथनमुख्यत्वेन तृतीयो महाधिकारः, इति समुदायेने काशीत्युत्तरशतगाथाभिर्महाधिकारत्रयं ज्ञातव्यं । " यह तो प्रारम्भ में भूमिका बनायी है फिर एक-एक अंतराधिकार में भी इसी प्रकार गाथाओं का स्पष्टीकरण करते हैं
प्रथम अधिकार के समापन में देखिए
पीठिका
"अत्र पंचास्तिकायप्राभृतग्रन्थे पूर्वोक्तक्रमेण सप्तगाथाभिः समयशब्द - चतुर्दशगाथाभिर्द्रव्यपीठिका, पंचगाथाभिर्निश्वयव्यवहारकालमुख्यता, त्रिपंचाशद्गाथाभिर्जीवास्तिकायव्याख्यानं, दशगाथाभिः पुद्गलास्तिकाय - व्याख्यानं, सप्तगाथाभिर्धर्मास्तिकायद्वयविवरणं, सप्तगाथाभिराकाशास्तिकाय व्याख्यानं, अष्टगाथाभिश्चूलिका मुख्यत्वमित्येकादशोत्तर-गाथाभिरष्टांतराधिकारा गता ।"
इस ग्रन्थ के अन्त में श्री जयसेनाचार्य लिखते हैं
" इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवृत्ती प्रथमतस्तावदेकादशोत्तरशत-गाथाभिरष्टभिरन्तराधिकारः, तदनन्तरं पंचाशत-गाथाभिर्दशभिरन्तराधिकारैर्नव-पदार्थप्रतिपादकाभिधानो द्वितीयो महाधिकारः, तदनन्तरं विंशतिगाथाभिर्द्वादशस्थल मोक्षस्वरूप-मोक्षमार्गप्रतिपादकाभिधानस्तृतीय महाधिकारश्चेत्यधिकारत्रयसमुदायेनं
काशीत्युत्तरशतगाथाभिः पंचास्तिकायप्राभृतः समाप्तः ।"
जैसे इन ग्रन्थों में दो टीकाकार होने से गाथाओं की संख्या में अन्तर आ गया है, वैसे ही प्रस्तुत मूलाचार में है यह बात निश्चित है । इन सब उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि दो आचार्यों के नाम से दो जगह से प्रकाशित 'मूलाचार' ग्रन्थ एक ही है, एक ही आचार्य की रचना है ।
१. पंचास्तिकाय, पृ. ६
२. पंचास्तिकाय, पृ. १६६
३. पंचास्तिकाय, पृ. २५५
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आद्य उपोद्घात / २६
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