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________________ पंचाचाराधिकारः] [२४६ अथवा समितिगुप्तिविषयपरिणामभेदेनाष्टप्रकारो न्याय्य आचार इति ॥२६७।। अथ युक्त इति विशेषणं किमर्थमुपातमित्याशंकायामाह पणिधाणंपि य दुविहं पसत्थ तह अप्पसत्थं च । समिदीसु य गुत्तीसु य पसत्थ सेसमप्पसत्थं तु ॥२६॥ प्रणिधानमपि द्विप्रकारं । प्रशस्तं शुभं । तथाप्रशस्तमशुभमिति । समितिषु गुप्तिषु प्रशस्तं प्रणिधानं । तथाशेषमप्रशस्तमेव । सम्यगयनं जीवपरिहारेण मार्गोद्योते धर्मानुष्ठानाय गमनं प्रयत्नपरस्य यतेर्यत् सा समितिः । अशुभमनोवाक्कायानां गोपनं स्वाध्यायध्यानपरस्य मनोवाक्कायसंवृतितृप्तिः । एतासु यत्प्रणिधानं स युक्तोऽष्ट प्रकारश्चारित्राचार इति । शेषं पुनर्यदप्रशस्तं प्रणिधानं तद्विविधमिन्द्रियनोइंद्रियभेदेन ॥२६॥ इन्द्रियप्रणिधानस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह सहरसरूवगंधे फासे य मणोहरे य इदरे य । जं रागदोसगमणं पंचविहं होइ पणिधाणं ॥२६॥ आठ प्रकार का चारित्राचार है । और, महाव्रत के भेद से पाँच प्रकार का आचार अथवा समिति गुप्ति विषयक परिणाम के भेद से आठ प्रकार का यह न्याय रूप आचार है। भावार्थ-चारित्राचार के पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ऐसे तेरह भेद होते हैं। उन्हें ही यहाँ पर पृथक्-पृथक् कहा है। यहाँ 'युक्त' यह विशेषण किसलिए ग्रहण किया है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-प्रणिधान के भी दो भेद हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त । समितियों और गुप्तियों में तो प्रशस्त है और शेष प्रणिधान अप्रशस्त है ॥२६॥ प्राचारवृत्ति-प्रशस्त-शुभ और अप्रशस्त-अशुभ के भेद से प्रणिधान भी दो प्रकार का है। समिति और गुप्ति में प्रशस्त प्रणिधान है तथा शेष प्रणिधान अप्रशस्त ही है । सम्यक् प्रकार से अयन अर्थात् गमन को या प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। अर्थात् जीवों के परिहारपूर्वक जैनमार्ग के प्रकाश में, प्रयत्न में तत्पर हुए यति का धर्मानुष्ठान के लिए जो गमन है या प्रवृत्ति है वह समिति है। गोपनं गुप्तिः अर्थात् अशुभ मन-वचन-काय को गोपन करना गुप्ति है। स्वाध्याय और ध्यान में तत्पर यति के जो मन-वचन-काय का संवत करना या नियन्त्रित करना-रोकना है वह गुप्ति है। इन पाँच समितियों और तीन गुप्तियों में जो प्रणिधान है वह युक्त अर्थात् न्यायरूप है, प्रशस्त है वही आठ प्रकार का वरित्राचार है। पुनः शेष जो अप्रशस्त प्रणिधान है वह इन्द्रिय और नोइन्द्रिय के भेद से दो प्रकार का है। भावार्थ-प्रशस्त परिणाम समिति और गुप्तिरूप से आठ प्रकार का है और अप्रशस्त परिणाम इन्द्रिय और मन के विषय के भेद से दो प्रकार का है । _अब इन्द्रिय प्रणिधान का स्वरूप बतलाते हैं गाथार्थ-मनोहर और अमनोहर ऐसे शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श में जो राग-द्वेष को प्राप्त होना है वह पाँच प्रकार का इन्द्रिय प्रणिधान है ।।२६६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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