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________________ पंचाचाराधिकार:] [२४३ प्राणिबधमृषावादादत्तमैथुनपरिग्रहाणां विरतयो निवृत्तय एष चारित्राचारः पंचप्रकारो भवति ज्ञातव्यः । येन प्राण्युपघातो जायते तत्सर्वं मनसा वचसा कायेन च परिहर्तव्यं येनानृतं, येन च स्तन्यं, येन मैथुनेच्छा, येन च परिग्रहेच्छा तत्सर्व त्याज्यमिति ॥२८॥ प्रथमव्रतप्रपंचनार्थमाह एइंदियादिपाणा पंचविहावज्जभीरुणा सम्म । ते खलु ण हिसिदव्वा मणवचिकायेण सव्वत्थ ॥२८६॥ एकमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः, एकेन्द्रिया आदिर्येषां प्राणानां जीवानां त एकेन्द्रियादयः प्राणाः, ते कियन्तः पंचविधाः पंचप्रकारास्ते, खल स्फट अवद्यभीरुणा सम्यग्विधानेन न हिसितव्याः, मनसा वचसा कायेन च सर्वत्र पीडा न कर्तव्या न कारयितव्यानानमन्तव्येति । सर्वस्मिन् काले, सर्वस्मिन् देशे सर्वस्मिन्वा भावे चेति ॥२८॥ द्वितीयव्रतस्वरूपनिरूपणार्थमाह--- हस्सभयकोहलोहा मणिवचिकायेण सव्वकालम्मि । मोसं ण य भासिज्जो पच्चयघादी हवदि एसी ॥२६०॥ हास्यभयलोभक्रोधैर्मनोवाक्कायप्रयोगेण सर्वस्मिन् कालेऽतीतानागतवर्तमानकालेषु मृषावादं आचारवृत्ति-जीववध, असत्यभाषण, अदत्तग्रहण, मैथुनसेवन और परिग्रह से निवृत्त होना यह पाँच प्रकार का चारित्राचार है। जिसके द्वारा प्राणियों का उपघात होता है उन सब का मन से, वचन से और काय से परिहार करना चाहिए। ऐसे ही, जिनसे असत्य बोलना होता है, जिनसे चोरो होती है, जिनसे मैथुन की इच्छा होती है और जिनसे परिग्रह की इच्छा होती है उन सभी कारणों का त्याग करना चाहिए। अब प्रथम व्रत का वर्णन करते हैं गाथार्थ-एकेन्द्रिय आदि जीव पाँच प्रकार के हैं। पापभीरु को सम्यक् प्रकार से मन-वचन-काय पूर्वक सर्वत्र उन जीवों की निश्चितरूप से हिंसा नहीं करना चाहिए ॥२८६॥ आचारवृत्ति-एक इन्द्रिय है जिनकी वे एकेन्द्रिय हैं। यहाँ 'प्राण' शब्द से जीवों को लिया है । वे कितने हैं ? पाँच प्रकार के हैं । पापभीरु मुनि को स्पष्टतया, सम्यक् विधान से, ।। मन-वचन-काय से सर्वत्र अर्थात् सर्वकाल में, सर्गदेश में अथवा सभी भावों में इन जीवों को पीड़ित नहीं करना चाहिए, न कराना चाहिए और न करते हुए की अनुमोदना ही करना चाहिए--यह अहिंसा महावत है। द्वितीय व्रत का स्वरूप निरूपण करने हेतु कहते हैं गाथार्थ-हास्य, भय, क्रोध और लोभ से मन-वचन-काय के द्वारा सभी काल में असत्य नहीं बोले; क्योंकि जैसा करनेवाला असत्यभाषी, विश्वासघाती होता है ॥२६॥ आचारवृत्ति-हास्य से, भय से, क्रोध से अथवा लोभ से भूत, भविष्यत् और वर्तमान उनको For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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