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________________ २४२ ] विणएण सुदमधीदं जदिवि पमादेण होदि बिस्सरिवं । तमुट्ठादि' परभवे केवलणाणं च प्रवहदि ॥ २८६ ॥ विनयेन श्रुतमधीतं यद्यपि प्रमादेन विस्मृतं भवति तथापि परभवेऽन्यजन्मनि तत्सूत्रमुपतिष्ठते, केवलज्ञानं चावहति प्रापयति तस्मात्कालादिशुद्धया पठितव्यं शास्त्रमिति ॥ २८६ ॥ ज्ञानाचारप्रबन्धमुपसंह रंश्चारित्राचारप्रबन्धं सूचयन्नाह - णाणाचारो एसो णाणगुणसमष्णिवो मए बुतो । एलो चरणाचारं चरणगुणसममिदं वोच्छं ॥ २८७॥ ज्ञानाचारो ज्ञानगुणसमन्वितो मयोक्तः । इत उर्ध्व चरणाचारं चरणगुणसमन्वितं वक्ष्ये कथयिष्येऽनुवदिष्यामीति । तेनात्रात्मकर्तृत्वं परिहृतमाप्तकर्तृत्वं च ख्यापितं ॥ २८७॥ ' तथा प्रतिज्ञानिर्वहन्नाह - [मूलाधारे पाणिवह मुसावाद-प्रदत्तमेहुणपरिग्गहा विरदी । एस चरिताचारो पंचविहो होदि णादव्वो ॥ २८८ ॥ गाथार्थ - विनय से पढ़ा गया शास्त्र यद्यपि प्रमाद से विस्मृत भी हो जाता है तो भी बह परभव में उपलब्ध हो जाता है और केवलज्ञान को प्राप्त करा देता है ॥ २८६ ॥ आचारवृत्ति - विनय से जो शास्त्र पढ़ा गया है, प्रमाद से यदि उसका विस्मरण भी हो जावे तो अन्य जन्म में वह सूत्र ग्रन्थ उपस्थित हो जाता है, स्मरण में आ जाता है । और वह पढ़ा हुआ शास्त्र केवलज्ञान को भी प्राप्त करा देता है। इसलिए काल आदि की शुद्धिपूर्वक शास्त्र का अध्ययन करना चाहिए। अब ज्ञानाचार के कथन का उपसंहार करते हुए और चरित्राचार के कथन की सूचना करते हुए आचार्य कहते हैं Jain Education International से गाथार्थ - ज्ञान गुण से सहित यह ज्ञानाचार मैंने कहा है। इससे आये चारित्र गुण सहित चारित्राचार को कहूँगा ॥ २८७ ॥ श्राचारवृत्ति - ज्ञानगुण समन्वित ज्ञानाचार मैंने कहा। अब मैं चरण गुण से समन्वित चरणाचार को कहूँगा । यहाँ पर 'वक्ष्ये' क्रिया का अर्थ ऐसा समझना कि 'जैसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है उसीके अनुसार मैं कहूँगा।' इस कथन से यहाँ पर ग्रन्थकर्त्ता ने आत्मकर्तृत्व का परिहार किया है और आप्तकर्तृत्व को स्थापित किया है। अर्थात् इस ग्रन्थ में जो भी मैं कह रहा हूँ वह मेरा नहीं है किन्तु आप्त के द्वारा कहे हुए को मैं किंचित् शब्दों में कह रहा हूँ । इससे इस ग्रन्थ की प्रमाणता स्पष्ट हो जाती है । उसी चारित्राचार को कहने की प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए कहते हैं गाथार्थ - हिंसा और असत्य से तथा अदत्तवस्तुग्रहण, मैथुन और परिग्रह से विरति होना - यह पाँच प्रकार का चारित्राचार है ऐसा जानना चाहिए ॥ २८८ ॥ १ क तमुट्ठावदि । २ क यथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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