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________________ पंचाचाराधिकारः ] [ २३३ लोभासूर्यादीनामभावो भावशुद्धिः पठनकाले कर्तव्या अत्यर्थमुपशमादयो भावयितव्याः । कालशुद्धयादिभिः शास्त्रं पठितं कर्मक्षयाय भवत्यन्यथा कर्मबन्धायेति ॥ २७६ ॥ नख और चमड़े आदि के अभाव को तथा समोप में पंचेन्द्रिय जीव के शरीर सम्बन्धी गीली हड्डी, चमड़ा, मांस और रुधिर के सम्बन्ध के अभाव को क्षेत्रशुद्धि कहते हैं ।' बिजली, इन्द्रधनुष, सूर्य-चन्द्र ग्रहण, अकाल-वृष्टि, मेघगर्जन, मेघों के समूह से आछन्न दिशाएँ, दिशादाह, धूमिकापात - कुहरा, संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वर महिमा, जिन महिमा इत्यादि के अभाव को कालशुद्ध कहते हैं । तथा पूर्वाह्न आदि वाचना हेतु दिशा की शुद्धि करना भी कालशुद्धि है जो नव, सात और पाँच गाथाओं द्वारा पहले कही जा चुकी है । राग-द्वेष, अहंकार, आर्त- रौद्र ध्यान इनसे रहित पांच महाव्रत, समिति और गुप्ति से सहित दर्शनाचार आदि समन्वित मुनियों के भावशुद्धि होती है ।" इस विषय की उपयोगी गाथाएँ दी गयी हैं यथा- "यमपटह का शब्द सुनने पर अंग से रक्तस्राव होने पर, अतिचार के हो जाने पर तथा दातारों के अशुद्ध काय होते हुए भोजन कर लेने पर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।' तिल मोदक, चिउड़ा, लाई, पुआ आदि चिक्कण एवं सुगन्धित भोजनों के करने पर तथा दावानल का धुआँ होने पर, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। एक योजन के घेरे में (चार कोश में) संन्यास विधि होने पर, तथा महोपवास- विधि, आवश्यक क्रिया एवं केशलोच के समय अध्ययन नहीं करना चाहिए । आचार्य का स्वर्गवास होने पर सात दिन तक अध्ययन का निषेध है । आचार्य का स्वर्गवास एक योजन दूर होने पर तीन दिन तथा अत्यन्त दूर होने पर एक दिन तक अध्ययन निषिद्ध है । प्राणी के तीव्र दुःख से मरणासन्न होने पर या एक निवर्तन ( एक बीघा या गु ंठा) मात्र में तिर्यंचों का चाहिए | उतने मात्र में स्थावरकाय के घात होने पर, क्षेत्र की अशुद्धि होने पर, दूर से दुर्गन्ध आने पर अथवा अत्यन्त सड़ी गन्ध के आने पर या ग्रन्थ का ठीक अर्थ समझ में न आने पर अथवा अपने शरीर के शुद्ध न होने पर मोक्ष इच्छुक मुनि को सिद्धान्त का अध्ययन नहीं करना चाहिए । अत्यन्त वेदना से तड़फड़ाने पर तथा संचार होने पर अध्ययन नहीं करना मल - विसर्जन भूमि से सौ अरत्नि प्रमाण दूर, मूत्र विसर्जन के स्थान से पचास अरत्नि दूर, मनुष्य शरीर के लेश मात्र अवयव के स्थान से पचास धनुष और निर्यञ्चों के शरीर सम्बन्धी अवयवों के स्थान से उससे आधी मात्र -- पच्चीस धनुष प्रमाण भूमि को शुद्ध करना चाहिए । १. प्रत्येक दिशा में सौ-सौ हाथ का प्रमाण भी आया है। यथा - ' चतसृषु दिक्ष, हस्तशतचतुष्मात्रेण [मूलाचार, गाथा २७६] २. धवला पु० ६, पृ० २५५ से २५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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