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________________ २२४] [मूलाचारे सम्यक्त्वसहचरं ज्ञानस्वरूपं व्याख्याय चारित्रसहचरस्य ज्ञानस्य प्रतिपादयन्नाह जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएसु रज्जदि । जेण मित्ती पभावेज्जतं गाणं जिणसासणे ॥२६॥ येन रागात् स्नेहात् कामक्रोधादिरूपाद्विरज्यते पराङ्मुखो भवति जीवः । येन च श्रेयसि रज्यते रक्तो भवति । येन मैत्री द्वेषाभावं प्रभावयेत् तज्ज्ञानं जिनशासने । किमुक्तं भवति-अतत्त्वे तत्त्वबुद्धिरदेवे देवताभिप्रायोऽनागमे आगमबुद्धिरचारित्रे चारित्रबुद्धिरनेकान्ते एकान्तबुद्धिरित्यज्ञानम् ॥२६॥ ज्ञानाचारस्य कति भेदा इति प्रष्टेऽत आह काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे। वंजण प्रत्थ तदुभए णाणाचारो दु अट्टविहो ॥२६॥ काले-स्वाध्यायवेलायां पठनपरिवर्तनव्याख्यानादिकं क्रियते सम्यक् शास्त्रस्य यत्स कालोऽपि ज्ञानाचार इत्युच्यते, साहचर्यात्कारणे कार्योपचाराद्वा। विणए-कायिकवाचिकमानसशुद्धपरिणामैः स्थितस्य तेन वा योऽयं श्रुतस्य पाठो व्याख्यानं परिवर्तनं यत्स विनयाचारः । उवहाणे-उपधानं अवग्रहविशेषण सम्यक्त्व के सहचारी ज्ञान का स्वरूप कहकर अब चारित्र के सहचारी ज्ञान का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ—जिसके द्वारा जीव राग से विरक्त होता है, जिसके द्वारा मोक्ष में राग करता है, जिसके द्वारा मैत्री को भावित करता है जिनशासन में वह ज्ञान कहा गया है॥२६॥ प्राचारवृत्ति-जिसके द्वारा जीव राग-स्नेह से और काम-क्रोध आदि से विरक्त होता है-पराङ मुख होता है, और जिसके द्वारा मोक्ष में अनुरक्त होता है, जिसके द्वारा मैत्री भावन अर्थात् द्वेष का अभाव करता है जिनशासन में वही ज्ञान है । तात्पर्य क्या हुआ ? अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि, अदेव में देवता का अभिप्राय, जो आगम नहीं हैं उनमें आगम की बुद्धि, अचारित्र में चारित्र की बुद्धि और अनेकान्त में एकान्त की बुद्धि यह सब अज्ञान है। ज्ञानाचार के कितने भेद हैं ? ऐसा पूछने पर कहते हैं-- गाथार्थ-काल, विनय, उपधान, बहुमान और अनिह्नव सम्बन्धी तथा व्यंजन, अर्थ और उभयरूप ऐसा ज्ञानाचार आठ प्रकार का है ।।२६६॥ आचारवंत्ति-काल में अर्थात् स्वाध्याय की बेला में सम्यक् शास्त्र का पढ़ना, पढ़े हए को फेरना, और व्याख्यान आदि कार्य किये जाते हैं वह काल भी ज्ञानाचार है । साहचर्य से अथवा कारण में कार्य का उपचार करने से काल को भी ज्ञानाचार कह दिया है। विनयअर्थात् काय वचन और मन सम्बन्धी शुद्ध भावों से स्थित हुए मुनि के विनयाचार होता है अथवा कायिक, वाचिक, मानसिक, शुद्ध परिणामों से सहित मुनि के द्वारा जो शास्त्र का पढ़ना, परिवर्तन करना और व्याख्यान करना है वह विनयाचार है। उपधान में अर्थात उपधान-अवग्रह नियम विशेष करके पठन आदि करना उपधानाचार है। यहाँ भी साहचार्य से उसे ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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