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________________ पंचाचाराधिकारः] [२२३ विज्ञानं । अंगपूर्व वस्तुप्राभृतकादि सर्व श्रुतज्ञानं । अनुमानं त्रिरूपं त्रिविधलिंगादुत्पन्नं साध्याविनाभाविलिङ्गादुत्पन्नं वा एतच्छू तज्ञानेप्यन्तर्भवति । एकमर्थं जातं दृष्ट्वाविनाभावेनान्यस्यार्थस्य परिच्छित्तिरपत्तिर्यथा शूनपीनांगो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते अर्थादापन्नं रात्रौ भुंक्ते इति । प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानं यथा गौस्तथा गवय इति । साध्य-साधनसम्बन्धग्राहकस्तर्कः सर्वमेतत्परोक्षं ज्ञानम् ।।२६७॥ अंग और पूर्वरूप तथा वस्तु प्राभृतक आदि सभी ज्ञान श्रुतज्ञान हैं। अनुमान तीन रूप है। तीन प्रकार के लिंग से उत्पन्न अथवा साध्य के साथ अविनाभावी लिंग से उत्पन्न हुआ ज्ञान अनुमान ज्ञान है । यह श्रुतज्ञान में अन्तर्भूत हो जाता है। एक अर्थ को हआ देखकर उसके अविनाभाव से अन्य अर्थ का ज्ञान होना अर्थापत्ति है; जैसे 'हृष्ट-पुष्ट अंगवाला देवदत्त दिन में नहीं खाता है' ऐसा कहने पर अर्थ से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह रात्रि में खाता है यह अर्थापत्ति है । साधर्म्य अर्थात् सदशता की प्रसिद्धि से साध्य-साधन का ज्ञान होना उपमान है, जैसे जिसप्रकार की गौ है वैसे ही गवय (रोझ नाम का पशु) है। साध्य-साधन के सम्बन्ध को ग्रहण करनेवाला तर्कज्ञान है। ये सभी परोक्ष हैं। विशेष न्यायग्रन्थों में भी स्व और अपूर्व अर्थ का निश्चायक ज्ञान प्रमाण कहा गया है। परीक्षामुख में आ वार्य ने इस प्रमाण के दो भेद किये हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के भी दो भेद किए हैं-सांव्यवहारिक और मुख्य अर्थात् पारमार्थिक । इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न हुआ मतिज्ञान सांव्यवहारिक है । उसे ही यहाँ अमुख्य प्रत्यक्ष कहा है । तथा मुख्य प्रत्यक्ष के भो देश प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष ऐसे दो भेद हैं। परोक्ष-प्रमाण के पाँच भेद किये हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। यहाँ पर जो अर्थापत्ति और उपमान को परोक्ष में लिया है । तथा, और भी अनेक भेद होते हैं, ऐसा कहा है । सो ये सभी इन्हीं पाँचों में ही सम्मिलित हो जाते हैं। यथा श्री अकलंक देव कहते हैं, कि अनुमान, उपमान, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव ये सभी प्रमाण हैं। इनमें से उपमान आदि प्रमाण अनुमान में अन्तर्भूत हैं। एवं अनुमान प्रमाण और ये भी स्वप्रतिपत्ति काल में अनक्षर श्रुत में अन्तर्भूत हैं और परप्रतिपत्ति काल में अक्षरश्रुत में अन्तर्भूत हैं । इस कथन से यह स्पष्ट है कि परोक्ष प्रमाण के अनेक भेद हैं। प्रत्यक्ष पूर्वक अनुमान को तीनरूप माना है-पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतो दृष्ट । इन्हें कम से केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी भी कहते हैं। (तत्त्वार्थवार्तिक) इन तीन प्रकार के लिंग से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अनुमान है । अथवा साध्य के साथ अविनाभावी रहने वाला ऐसा अन्यथानुपत्ति रूप हेतु से होनेवाला साध्य का ज्ञान अनुमान है। ये सभी परोक्षज्ञान हैं। विशेष बात यह है कि यहाँ पर टीकाकार ने न्यायग्रन्थों की अपेक्षा से ही मतिज्ञान को ईषत्प्रत्यक्ष कहा है परन्तु सिद्धान्त ग्रन्थों में मति, श्रुत दोनों को परोक्ष ही कहा है। (तत्त्वार्थवातिक प्र० अ०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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