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________________ पंचाचाराधिकारः] दर्शनचरणविपन्नान् सम्यग्दर्शनचारित्रम्लानान् जीवान् दृष्ट्वा धर्मभक्त्या वा उपगूहयन् उज्वलयन् संवरयन्वा एतेषामुपगूहनं संवरणं कुर्वन् दर्शनशुद्धो भवत्येष उपगूहनकर्तेति ॥२६१।। स्थिरीकरणस्वरूपं प्रतिपादनायाह--- दसणवरणुवभ?' जीवे दळूण धम्मबुद्धीए। हिदमिदमवगूहिय ते खिप्पं तत्तो णियत्तेइ ॥२६२॥ दर्शनवरणोपभ्रष्टान् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यो भ्रष्टान्निर्गतान् जीवान् दृष्ट्वा धर्मबुद्धया हितमितवचनैः सुखनिमित्तैः पूर्वापरविवेकसहितवचनैरवगू ह्य स्वीकृत्य तेभ्यो दोषेभ्यः क्षिप्रं शीघ्र तान्निवर्तयन निवर्तयति यः स स्थिरीकरणं कुर्वन् दर्शन शुद्धो भवतीति सम्बन्धः ।।२६२।। वात्सल्यार्थ प्रतिपादयन्नाह चादुव्वण्णे संघे चद्गदिसंसारणित्थरणभूदे। वच्छल्लं कादव्वं वच्छे गावी जहा गिद्धी ।।२६३॥ प्राचारवृत्ति-जो सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र में म्लान हैं-भ्रष्ट हैं, ऐसे जीवों को देखकर धर्म की भक्ति से उनके दर्शन और चारित्र को उज्ज्वल करते हुए अथवा उनके दोषों को ढकते हुए उनका उपगूहन-दोषों का छादन करते हुए मुनि सम्यक्त्व की शुद्धि को प्राप्त करता है । यह साधु उपगूहन का करनेवाला होता है। भावार्थ-सम्यक्त्व या चारित्र में दोष लगानेवालों को देखकर उनके दोषों को दूर करते हुए, उनके गुणों को बढ़ाना और उनके दोषों को प्रकट नहीं करना उपगृहन अंग है । यह सम्यक्त्व को निर्मल बनाता है। स्थिरीकरण का स्वरूप बताते हैं गाथार्थ—सम्यग्दर्शन और चारित्र से भ्रष्ट हुए जीवों को देखकर धर्म की बुद्धि से हितमित वचन से उन्हें स्वीकार करके उनको शीघ्र ही उन दोषों से हटाना स्थिरीकरण है ।।२६२॥ प्राचारवृत्ति-सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र से भ्रष्ट हुए जीवों को देखकर धर्म की बुद्धि से सुख के लिए कारणभूत पूर्वापर विवेक सहित ऐसे हित-मित वचनों से उन्हें स्वीकार करके या समझा करके शीघ्र ही उन दोषों से उनको वापस करना-उन दोषों से उन्हें हटा देना, वापस पुनः उन्हीं दर्शन या चारित्र में स्थिर कर देना स्थिरीकरण है। इस स्थिरीकरण को करते हुए मुनि अपने सम्यग्दर्शन को विशुद्ध कर लेता है । अर्थात् अन्य को च्युत होते हुए देख उन्हें जैसे-तैसे वापस उसी में दृढ़ करना स्थिरीकरण अंग है। वात्सल्य का अर्थ प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-चारों गतिरूप संसार से पार करने में कारणभूत ऐसे चतुर्विध संघ में वात्सल्य करना चाहिए। जैसे, बछड़े में गौ की आसक्ति का होना ॥२६॥ १ क चरणपभट्टे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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