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________________ २१८] मूलाचारे धारिणः । परिहत्ता-परिव्राजका एकपण्डित्रिदण्ड्यादयः स्नानशीला शुचिवादिनः । आदिशब्देन शव-पाशुपतिकापालिकादयः परिगृह्यन्ते । (अण्ण पासंडा—)। एते लिंगिन संसारतारकाः शोभनानुष्ठाना यद्येवं गृह्णाति समयमूढोऽसाविति ॥२५॥ देवमोहप्रतिपादनार्थमाह-- ईसरबंभाविण्हूअज्जाखंदादिया य जे देवा । ते देवभावहीणा देवत्तणभावणे मूढो ॥२६०॥ ईश्वर-ब्रह्म-विष्णु-भगवती-स्वामिकार्तिकादयो ये देवास्ते देवभावहीना: चतुर्णिकायदेवस्वरूपेण सर्वज्ञत्वेन च रहितास्तेषूपरि यदि देवत्वपरिणामं करोति तदानीं देवत्वभावेन मूढो भवतीत्यर्थः ॥२६०॥ उपगृहनस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह दंसणचरणविवण्णे जीवे दळूण धम्मभत्तीए। उपगहणं करितो सणसुद्धो हवदि एसो ॥२६॥ आदि भक्षण करनेवाले वन में रहनेवाले और जटा, कौपीन आदि को धारण करनेवाले तापस कहलाते हैं। एकदण्डी, त्रिदण्डी आदि साधु परिव्राजक हैं। ये स्नान में धर्म माननेवाले और अपने को पवित्र माननेवाले हैं। आदि शब्द से शैव पाशुपति, कापालिक आदि का भी संग्रह किया जाता है। और भी अन्य पाखण्डी साधु जो अनेक लिंग धारण करनेवाले हैं। ये संसार से तारनेवाले हैं, इनके आचरण सुंदर हैं यदि ऐसा कोई ग्रहण करता है तो वह समयमूढ़ कहलाता है। देवमोह का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-महेश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, पार्वती, कार्तिक आदि जो देव हैं वे देवपने से रहित हैं उनमें देवभावना करने पर वह देवमूढ़ होता है ॥२६०।। प्राचारवृत्ति-ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, भगवती--पार्वती, स्वामी कार्तिक आदि जो कि देव माने गये हैं। ये चतुनिकाय के देवों के स्वरूप से भी देव नहीं हैं और सर्वज्ञदेव के स्वरूप से भी देव नहीं है, अतः सभी तरह से ये देवभाव से रहित हैं। यदि कोई इन पर देवत्व परिणाम करता है तब वह देवत्व भाव से मूढ़ हो जाता है। भावार्थ----अमूढ़दृष्टि अंग से विपरीत मूढ़दृष्टि होती है जिसका अर्थ है मूढष्टि का होना। यहाँ पर इसे ही दृष्टिमूढ कहा है और उसके चार भेद किये हैं--लौकिकमोह, वैदिकमोह, सामयिकमोह और देवमोह । इन चारों प्रकार के मोह से रहित होनेवाले साध अमूढदृष्टि अंग का पालन करते हुए अपने दर्शनाचार को निर्मल बना लेते हैं। अब उपगृहन का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ--दर्शन या चारित्र से शिथिल हुए जीवों को देखकर धर्म की भक्ति से उनका उपगूहन करते हुए यह दर्शन से शुद्ध होता है ॥२६१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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