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________________ २१६] मूलाचारे कोडिल्लमासरक्खा भारहरामायणादि जे धम्मा। होज्जु व तेसु विसुत्ती लोइयमूढो हवदि एसो ॥२५७॥ कोडिल्ल-कुटिलस्य भावः कौटिल्यं तदेव प्रयोजनं यस्य धर्मस्य सः कौटिल्यधर्मः ठकादिव्यवहारो लोकप्रतारणाशीलो धर्मः परलोकाद्यभावप्रतिपादनपरो व्यवहारः । आसुरक्खा-असवः प्राणास्तेषां छेदनभेदनताडनत्रासनोत्पाटनमारणादिप्रपंचेन वञ्चनादिरूपेण वा रक्षा यस्मिन् धर्मे स आसुरक्षो धर्मो नगराधारक्षिकोपायभूतः। अथवा कौटिल्यधर्मः, इंद्रजालादिकं पुत्रबन्धुमित्रपितृमातृस्वाम्यादिघातनोपदेशः, चाणक्योद्भव आसुरक्षः मद्यमांसखादनायुपदेशः । बलाधान रोगाद्यपनयनहेतुः वैद्यधर्मः । भारतरामायणादिकाः पंचपाण्डवानामेका योषित, कंतिश्च पंचभर्तृका, विष्णुश्च सारथिः, रावणादयो राक्षसाः, हनुमानादयश्च मर्कटाः इत्येवमादिका असद्धर्मप्रतिपादनपरा ये धर्मास्तेषु या भवेद्विश्रुतिविपरिणामः एतेपि धर्मा इत्येवं मूढो लौकिकमूढो भवत्येष इति ॥२५७॥ वैदिकमोहप्रतिपादनार्थमाह रिव्वेदसामवेदा वागणुवादादिवेदसत्थाई। तुच्छाणित्तिण' गेण्हइ वेदियमूढो हवदि एसो ॥२५॥ गाथार्थ-कौटिल्य, प्राणिरक्षण, भारत, रामायण आदि सम्बन्धी जो धर्म हैं, उनमें जो विपरिणाम का होना है---यह लौकिक मूढ़ता है ॥२५७॥ आचारवृत्ति-कुटिल का भाव कुटिलता है। वह कुटिलता ही जिस धर्म का प्रयोजन है वह कौटिल्य धर्म है । जो ठगने आदि का व्यवहार रूप लोगों की वंचना में तत्पर धर्म है अर्थात जो परलोक आदि के अभाव को कहनेवाला धर्म है वह सब कौटिल्यधर्म है। जिस धर्म में असू-प्राणों के छदन, भदन, ताड़न, त्रास देना, उत्पाटन करना, मारना इत्यादि अथवा वंचना आदि प्रकार से प्राणों की रक्षा की जाती है वह आसरक्ष धर्म है अर्थात नगर आदि की रक्षा में नियुक्त हुए कोतवाल आदि के जो धर्म हैं वे आसुरक्ष धर्म हैं।। ___ अथवा इन्द्रजाल आदि कार्य; पुत्र, भाई, भित्र, पिता, माता, स्वामी आदि के घात करने का उपदेश जो कि चाणक्य द्वारा उत्पन्न हुआ है, कौटिल्यधर्म है। मद्य पीना, मांस खाना इत्यादि का उपदेश आसुरक्ष है । बल को बढ़ाने, रोगादि को दूर करने आदि के लिए उपायभत वैद्य का धर्म है। भारत और रामायण आदि में जो कहा गया है कि पाँचों पाण्डवों की एक पत्नी द्रौपदी थी, और कुन्ती भी पाँच पतिवाली थी, पाण्डवों के युद्ध में विष्णु भगवान सारथी थे, रावण आदि राक्षस थे, हनुमान् आदि बन्दर थे, इत्यादि रूप से असत् धर्म के प्रतिपादन करनेवाले जो धर्म हैं उन धर्मों के विषय में जो विश्रुति-विपरिणाम है अर्थात ये भी सब धर्म हैं इत्यादि रूप से मोह को प्राप्त होना लोकिक मूढ़ता है ऐसा समझना। वैदिक मोह का प्रतिपादन करते हैं __गाथार्थ-ऋग्वेद, सामवेद, उनके वाक् और अनुवाद आदि से सम्बन्धित तुच्छ जो वेदशास्त्र हैं उन्हें जो ग्रहण करता है वह वैदिक मूढ़ होता है ।।२५८।। १ तुच्छाणित्तणि-मु०। पकार से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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