SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचाचाराधिकारः ] [२१५ खमणं --क्षमणं सहनं तत्प्रत्येकमभिसम्बध्यते क्षुत्परीषहक्षमणं तृट्रपरीषक्षमणमित्यादि । ततः परीषहजयो भवति ततश्च भावविचिकित्सा दर्शनमलं निराकृतं भवतीति ॥। २५४-२५५।। दृष्टिमोहप्रपंच नार्थमाह लोइयवेदियसामाइएस तह अण्णदेवमूढत्त । णच्चा दंसणघादी ण य कायन्वं ससत्तीए ॥ २५६॥ लोइय लोक: ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रास्तस्मिन् भवो लौकिकः आचार इति सम्बन्धः । वेदेषुसामऋग्यजुःषु भवो वैदिकः आचारः । समयेषु - नैयायिकवैशेषिकबौद्धमीमांसकापिललोकायतिकेषु भव आचारः सामयिकस्तेषु लौकिकवैदिकसामयिकेषु आचारेषु क्रियाकलापेषु तथान्यदेवकेषु । मूढतं - मूढत्वं मोहः परमार्थरूपेण ग्रहणं तद्दर्शनघाति । सम्यक्त्वविनाशं ज्ञात्वा तस्मात्तन्मूढत्वं सर्वशत्क्या न कर्तव्यं ॥ २५६ ॥ लौकिकमूढत्व प्रपंचनार्थमाह इन परीषहों के द्वारा व्रतादि के भंग न होने पर भी जो संक्लेश उत्पन्न होता है वह भाव विचिकित्सा है। इनको क्षमण - सहन करना परीषहक्षमण है । यह क्षमण शब्द भी प्रत्येक के साथ लगा लेना चाहिए; जैसे क्षुधापरीषहक्षमण, तृषापरीषहक्षमण इत्यादि । इन क्षुधा आदि बाधाओं के सहने से परीषहजय होता है अर्थात् क्षुधा आदि बाधाओं के आ जाने पर संक्लेश परिणाम नहीं करने से परीषहजय होता है । और इन परीषहों को जीतने से भाव विचिकित्सा नाम का जो सम्यग्दर्शन का मल-दोष है उसका निराकरण हो जाता है । भावार्थ-मुनियों के शरीर सम्बन्धी मल-मूत्रादि से ग्लानि नहीं करना तथा उनकी वैयावृत्ति करना यह द्रव्यनिर्विचिकित्सा है । क्षुधा, तृषा आदि बाधाओं से पीड़ित होकर भी मन में यह नहीं सोचना कि जिन मत में यह बहुत कठिन है कैसे सहन कर सकेंगे इत्यादि तथा व्रतों को भंग नहीं करते हुए संक्लेश भी नहीं करना यह भाव निर्विचिकित्सा है। इस प्रकार से सम्यग्दृष्टि मुनि इस निर्विचिकित्सा का पालन करने हेतु सम्यक्त्व शुद्ध रखता है । अब दृष्टिमोह अर्थात् मूढदृष्टि का वर्णन करते हैं Jain Education International गाथार्थ-लौकिक, वैदिक और सामयिक के विषय में तथा अन्य देवताओं में मूढ़ता को जानकर सर्वशक्ति से दर्शन का घात नहीं करना चाहिए ।। २५६॥ श्राचारवृत्ति-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को लोक कहते हैं । इनमें होनेवाला या इनसे सम्बन्धित आचार लौकिक आचार है । सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद इनमें कथित आचार वैदिक आचार है । नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध, मीमांसक, सांख्य और चार्वाक इनसे सम्बन्धित आचार सामयिक आचार है । अर्थात् लौकिक आदि क्रियाकलापों में तथा अन्य देवों में जो मूढ़ता — मोह है उसे परमार्थ रूप से जो ग्रहण करता है वह दर्शन का घात करनेवाला है । इस मूढ़ता से सम्यक्त्व का विनाश जानकर सर्वशक्ति से इनमें मोह को प्राप्त नहीं होना चाहिए । लौकिक मूढत्व को कहते हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy