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________________ पंचाचाराधिकारः] [२०१ अविरमणं हिंसादी पंचवि दोसा हवंति णादव्वा । 'कोधादी य कसाया जोगो जीवस्स चेट्ठा दु॥२३॥ हिंसादयः पंचापि दोषाः हिंसासत्यस्तेयाब्रह्मपरिग्रहा अविरमणं ज्ञातव्यं भवति। क्रोधमानमायालोभाः कषायाः । जीवस्य चेप्टा तु योग: ।।२३८।। संवरपदार्थस्य व्याख्यानायाह मिच्छत्तासवदारं रु भइ सम्मत्तदढकवाडेण । हिंसादिदुवाराणिवि दढवदफलिहेहिं रुब्भंति॥२३६॥ मिथ्यात्वमेवास्रवद्वारं मिथ्यात्वास्रवद्वारं । रुकभन्ति--रुंधन्ति निवारयन्ति । सम्मत्तदढकवाडेणसम्यक्त्वमेव दृढकपाटं तेन सम्यक्त्वदृढकपाटेन तत्त्वार्थश्रद्धानविधानेन हिंसादीनि द्वाराणि दृढव्रतफलकै रुन्धन्ति प्रच्छादयन्तीति ॥२३॥ पासवदि जंतु कम्मं कोधादीहिं तु प्रयदजीवाणं । तप्पडिवखेहि विदु रुंभंति तमप्पमत्ता दु॥२४०॥ क्रोधादिभिर्यत्कर्मास्रवत्युपढौकतेऽयत्नपरजीवानां तत्प्रतिपक्षस्तत्प्रतिकूलैः क्षमादिभिरप्रमत्ताः गाथार्थ-हिंसादि पांच पाप ही अविरति होते हैं ऐसा जानना चाहिए । क्रोधादि कषाय हैं और जीव की चेष्टा का नाम योग है ॥२३॥ आचारवृत्ति-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँच दोष ही अविरति नाम से जाने जाते हैं। क्रोध मान माया लोभ ये कषायें हैं तथा जीव की चेष्टा-प्रवृत्ति (आत्म प्रदेशों का परिस्पंदन) का नाम योग है। अर्थात् इन मिथ्यात्व आदि चार कारणों से कर्मों का आस्रव होता है इस प्रकार से आस्रव पदार्थ का व्याख्यान किया है। अब संवर पदार्थ का व्याख्यान करते हैं ___ गाथार्थ-मिथ्यात्व रूप आस्रव द्वार को सम्यक्त्वरूपी दृढ़ कपाट से रोकते हैं और हिंसा आदि अविरति रूप द्वारों को भी दृढ़ व्रतरूपी दरवाजों से रोक देते हैं ॥२३६।। ___आचारवृत्ति--मिथ्यात्व ही कर्मों के आने का द्वार है । सम्यग्दृष्टि जीव तत्त्वार्थ श्रद्धान रूपी मजबूत कपाट के द्वारा मिथ्यात्व आस्रव को रोक देते हैं । हिंसा आदि आस्रव द्वारों को व्रतरूपी मजबूत फलकों के दरवाजों के द्वारा ढक देते हैं। गाथार्थ-अयत्नाचारी जीवों के क्रोधादि द्वारा जो कर्म आते हैं, अप्रमत्त विद्वान उनके प्रतिपक्षों के द्वारा उन्हें रोक देते हैं ॥२४०॥ आचारवृत्ति-अयत्नाचारी अर्थात् असंयत जीव क्रोध आदि के द्वारा जो कर्मों का आस्रव करते हैं प्रमादरहित विद्वान साधु उनसे प्रतिकूल क्षमा आदि के द्वारा उन आते हुए आस्रव को रोक देते हैं । इस कथन से संवर करनेवाले जीव का व्याख्यान किया है । अर्थात् १. कोहादी य द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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