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________________ २०० ] ननु जीवप्रदेशानाममूर्तानां कथं कर्मपुद्गलैर्मूर्तेः सह सम्बन्धोऽत आह होउप्पिदगत्तस्स रेणुओ लग्गदे जधा श्रंगे । तह रागदोससिणेहोल्लिदस्स कम्मं मुणेयव्वं ॥२३६॥ स्नेहो घृतादिकं तेनार्द्रीकृतस्य गात्रस्य शरीरस्य रेणवः पांसवो लगन्ति संश्रयंति यथा तथा रागद्वेषस्नेहार्द्रस्य जीवस्यांगे शरीरे कर्मपुद्गला ज्ञातव्यास्तै जसकार्मणयोः शरीरयोः सतोरित्यर्थः । रागः स्नेहः, कामादिपूर्विका रतिः, द्वेषोऽप्रीतिः क्रोधादिपूर्विकाऽरतिरिति ॥ २३६ ॥ तद्विपरीतेन पापस्यास्रव इत्युक्तं तन्मुख्यरूपेण किमित्यत आह मिच्छतं श्रविरमणं कसायजोगा य आसवा होंति । अरिहंतवुत्तअत्थेसु विमोहो होइ मिच्छत्तं ॥ २३७॥ [मूलाचारे मिथ्यात्वमविरमणं कषाया योगश्चैते आस्रवा भवन्ति । अथ मिथ्यात्वस्य किं लक्षणमित्यत आह —अर्हदुक्तार्थेषु सर्वज्ञभाषितपदार्थेषु विमोहः संशयविपर्ययानध्यवसायरूपो मिथ्यात्वमिति भवति ॥२३७॥ अविरमणादीन्प्रतिपादयन्नाह अमूर्तिक जीव प्रदेशों का मूर्तिक कर्म- पुद्गलों के साथ संबंध कैसे होता है ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं गाथार्थ - जैसे तेल को मर्दन करने से मर्दन करने वाले के शरीर में धूलि चिपक जाती है उसी प्रकार से रागद्व ेष और स्नेह से लिप्त हुए जीव के कर्म चिपकते हैं ऐसा जानना चाहिए ॥२३६॥ श्राचारवृत्ति - घृत, तेल आदि को स्नेह कहते हैं । उससे आर्द्र - गीला या चिकना है। शरीर जिसका ऐसे मनुष्य के शरीर में जैसे धूलि चिपक जाती है उसी प्रकार से राग द्वेष और स्नेह से लिप्त हुए जीव के अंग में कर्म पुद्गल चिपक जाते हैं । अर्थात् जीव के तेजस और कार्मण शरीर से कार्मण वर्गणाएँ सम्बन्धित हो जाती हैं। राग और स्नेह शब्द से काम पूर्वक रति को लेते हैं और द्वेष - अप्रीति अर्थात् क्रोधादि पूर्वक अरतिको द्वेष कहते हैं । आपने कहा है कि अनुकंपा आदि के विपरीत कारणों से पाप का आस्रव होता है वे मुख्य रूप से कौन कौन हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं गाथार्थ -- मिथ्यात्व, अविरति कषाय और योग ये आस्रव कहलाते हैं । अर्हत देव के कथित पदार्थों में विमोह होना मिथ्यात्व है ॥२३७॥ श्राचारवृत्ति - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं । मिथ्यात्व का क्या लक्षण है ? सो बताते हैं । सर्वज्ञ के द्वारा भाषित पदार्थों में संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूप परिणाम का नाम मिथ्यात्व है । अब अविरति आदि का लक्षण बतलाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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