SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६] [मूलाचारे पुनरपि भेदप्रकरणायाह कुलजोणिमग्गणा विय णादव्वा सव्वजीवाणं । णाऊण सव्वजीवे णिस्संका होदि कादव्वा ॥२२०॥ कुल-कुलं जातिभेदः । जोणि-योनिरुत्पत्तिकारणं । कुलयोन्योः को विशेष इति चेन्न, वटपिप्पलकृमिशूक्तिमत्कुणपिपीलिकाभ्रमरमक्षिकागोश्वक्षत्रियादि कुलं । कन्दमूलाण्डगर्भरसस्वेदादिॉनिः। मग्गणावि य-मार्गणाश्च गत्यादयः । णादव्वा-ज्ञातव्याः । सन्वजीवाणं-सर्वजीवानां पृथिव्यादीनां । णाऊणज्ञात्वा । सव्वजीवे-सर्वजीवान् । निस्संका-निःशंका संदेहाभावः। होदि--भवति । कादम्वा कर्तव्या। कूलयोनिमार्गणाभेदेन सर्वजीवान ज्ञात्वा निःशंका भवति कर्तव्येति ॥२२०॥ कुलभेदेन जीवान् प्रतिपादयन्नाह बावीस सत्ततिण्णि य सत्त य कुलकोडिसदसहस्साई। णेया पुढविदगागणिवाऊकायाण पडिसंखा ॥२२१॥ वावीस-द्वाविंशतिः । सत्त-सप्त। तिणि य-त्रीणि च।सत्तय-सप्त चं कुलकोडिसदसहस्साई -कुलानां कोट्यः कुलकोट्यः कुलकोटीनां शतसहस्राणि तानि कुलकोटीशतसहस्राणि । द्वाविंशतिः सप्त त्रीणि च सप्त च । णेया-ज्ञातव्याः । पुढवि.-पृथिवीकायिकानां। दग—अप्कायिकानां। अगणि-अग्निकायिकानां । वाऊ-वायुकायिकानां । पडिसंखा-परिसंख्या। पृथिवीकायानां कुलकोटि पुनरपि इनके भेदों को बतलाते हैं गाथार्थ-सभी जीवों के कुल, उनकी योनि और मार्गणाओं को भी जानना चाहिए। और सभी जीवों को जानकर शंका रहित हो जाना चाहिए ॥२२०॥ आचारवृत्ति-जाति के भेद को कुल कहते हैं और उत्पत्ति के कारण को योनि कहते हैं। कुल और योनि में क्या अन्तर है ? बड़-पीपल, कृमि-सीप, खटमल-चींटी, भ्रमर-मक्खी, गौ, अश्व क्षत्रिय आदि ये कुल हैं। कन्द, मूल, अंड, गर्भ, रस, पसीना आदि योनि कहलाते हैं । गति, इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाएँ हैं। इन कुल योनि और मार्गणाओं के भेद से पृथिवीकायिक से लेकर पंचेन्द्रिय अस पर्यंत सभी जीवों को जानकर उनके विषय में सन्देह नहीं करना चाहिए। __ अब कुल के भेदों का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-पृथिवी जल, अग्नि और वायुकायिक जीवों की संख्या क्रम से बाईस, सात, तीन और सात लाख करोड़ है । इन्हें कुल नाम से जानना चाहिए ।।२२१॥ प्राचारवृत्ति--पृथिवीकायिक जीवों के कुलों की संख्या वाईस लाख करोड़ है । जल कायिक जीवों के कुलों को सात लाख करोड़ है । अग्निकायिक जीवों के कुलों की तीन लाख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy