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________________ पंचाचाराधिकारः | तेजः कायिकभेदप्रतिपादनायाह इंगाल जाल अच्ची मुम्मुर सुद्धागणीय श्रगणी य । ते जाण तेजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा ॥२११॥ इंगाल - अंगाराणि ज्वलितनिर्धूमकाष्ठादीनि । जाल - ज्वाला । अच्चि - अचिः प्रदीपज्वालाद्यग्रं । मुम्मुर -- मुर्मुरं कारीषाग्निः । सुद्धागणीय— शुद्धाग्निः वज्राग्निविद्युत्सूर्यकान्ताद्युद्भवः । अगणीयसामान्याग्निर्धूमादिसहितः । वाडवाग्निमन्दीश्वरधूमकुण्डिकामुकुटानलादयोऽत्रैवान्तर्भवन्तीति । तानेतांस्तेजःकायिकजीवान् जानीहि ज्ञात्वा च परिहरणीया एतदेव ज्ञानस्य प्रयोजनमिति ॥ २१९ ॥ वायुकायिकस्वरूपमाह वाgoभामो उक्कलि मंडलि गुंजा महा घण तणू य । ते जाण वाउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा ॥ २१२ ॥ [ १७७ वावुभामो - वातः सामान्यरूपः उद्भ्रमो भ्रमन्नूध्वं गच्छति । उक्कलि -- उत्कलिरूपो । मंडलि - पृथिवीं लग्नो भ्रमन् गच्छति । गुंजा -- गुंजन् गच्छति । महा-महावातो वृक्षादिभंगहेतुः । घणतणूयघनोदधिः घननिलयस्तनुवातः, व्यजनादिकृतो वा तनुवातो लोकप्रच्छादकः । उदरस्थपंचवात - विमानाधार - अब अग्निकायिक भेदों के प्रतिपादन हेतु कहते हैं गाथार्थ - अंगारे, ज्वाला, लौ, मुर्मुर, शुद्धाग्नि और अग्नि-इन्हें अग्निजीव जानों और जानकर उनका परिहार करो ॥२११ ॥ आचारवृत्ति --- जलते हुए धुएँ रहित काठ आदि अर्थात् धधकते कोयले अँगारे कहलाते हैं। अग्नि की लपटें ज्वाला कहलाती हैं । दीपक का और ज्वाला का अग्रभाग (लौ ) अ है। कण्डे की अग्नि का नाम मुर्मुर है । वज्र से उत्पन्न हुई अग्नि, बिजली की अग्नि, सूर्यकान्त से उत्पन्न हुई अग्नि ये शुद्ध अग्नि हैं । धुएँ आदि सहित सामान्य अग्नि को अग्नि कहा है | वडवा अग्नि, नन्दीश्वर के मन्दिरों में रखे हुए धूपघटों की अग्नि, अग्निकुमार देव के मुकुट से उत्पन्न हुई अग्नि आदि सभी अग्नि के भेदों का उपर्युक्त भेदों में ही अन्तर्भाव हो जाता है । अग्निकायिक जीवों को जानो और जानकर उनकी रक्षा हेतु उनका परिहार करो, यही इनके जानने का प्रयोजन है । Jain Education International वायुकायिक का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ - घूमती हुई वायु, उत्कलि रूप वायु, मंडलाकार वायु, गुंजा वायु, महावायु, घनोदधिवातवलय की वायु और तनुवातवलय की वायु वायुकायिक जीव जानो और जानकर उनका परिहार करो ॥२१२॥ श्राचारवृत्ति- -वात शब्द से सामान्य वायु को कहा है। जो वायु घूमती हुई ऊपर को उठती है वह उभ्रम वायु है । जो लहरों के समान होती है वह उत्कलिरूप वायु है । पृथ्वी में लगकर घूमती हुई वायु मण्डलिवायु है । गूंजती हुई वायु गुंजावायु है । वृक्षादि को गिरा देने वाली वायु महावायु है । घनोदधिवातवलय, तनुवातवलय की वायु घनाकार है और पंखे आदि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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