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[मूलाचारे
पुढवी - पृथिवी मृद्रूपा । बालुया -- बालुका रूक्षा गंगाद्युद्भवा । सक्करा -- शर्करा परुषरूपा अत्र चतुरस्रादिरूपा । उवले - उपलानि वृत्तपाषाणरूपाणि । सिला य-- शिला च वृहत्पाषाणरूपा | लोणे य लवणभेदाः सामुद्रादयः । अघ - अयो लोहरूपं । तंव - ताम्र । तय – पुषं । सीसय —– सीसकं श्यामवर्णं । रुप्प —रूप्यवर्णं शुक्लरूपं । सुवज्जेय - सुवर्णानि च रक्तपीतरूपाणि । वइरे य-- वज्र ं च रत्नविशेषः ॥२०७॥ हरिदाले -दरिताल नटवर्णकं । हिंगुलये हिंगुलकं रक्तद्रव्यं । मणोसिला - मनःशिला काशप्रतिकाराय प्रवृत्तं । सस्सा – पस्यकं हरितरूपं अंजन – अञ्जनं अयुपकारकं ( चक्षुरूपकारकं ) द्रव्यं । पवालेय – प्रवालं च । अब्भपडल - अभ्रपटलं । अब्भबालुग -- अभ्रवालुका वैक्यचिक्यरूपा । वादरकायास्थूलकायाः । मणिविधीय--इत ऊर्ध्वं मणिविधयो मणिप्रकारा वक्ष्यन्त इति सम्बन्धः ॥२०७॥
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शर्क रोपलशिला वज्रप्रवालवर्जिताः शुद्धाः पृथिवीविकाराः पूर्वे एते च खरपृथिवीविकाराः । गोमज्झगेय-गोमध्यको मणिः कर्केतनमणिः । रुजगे - रुचकश्च मणी राजवर्तकरूपः । अंकेअंको मणिः पुलकवर्णः । फलिहे – स्फटिकमणिः स्वच्छरूपः । लोहिदकेय — लोहितांको मणी रक्तवर्णः पद्मरागः । चंदप्पभेय - चन्द्रप्रभो मणिः । देहलिए — वैडूर्यो मणिः । अलकंते -- जलकान्तो मणिरुदकवर्णः । सूरकंतेय - सूर्यकान्तो मणिः ॥ २०८ ॥
atra को जानो और जानकर उनका परिहार करना चाहिए ॥ २०६-२०६॥
श्राचारवृत्ति - सामान्य मिट्टी रूप को पृथिवी कहते हैं । बालुका - जो रूक्ष है गंगानदी आदि में उत्पन्न होती है । शर्करा - कंकरीली रेत जो कठोर होती है और चौकोन आदि आकारवाली होती है । उपल-गोल गोल पत्थर के टुकड़े, शिला - पत्थर की चट्टानें, लवण -- पहाड़ या समुद्र आदि के जल से जमकर होने वाला नमक, लोह - लोहा, रूप्य - चाँदी, सुवर्ण - सोना और वज्र- - हीरा ये सब रत्नविशेष हैं ।
हरिताल - यह नटवर्ण का होता है । हिंगूल --- यह लाल वर्ण का होता है । मेनसिल यह पत्थर खाँसी के रोग में औषधि के काम आता है । सस्यक - ( तूतिया ) यह हरे वर्ण का होता है । अजन - यह नेत्रों का उपकार करने वाला द्रव्य है । प्रवाल- इसे मूंगा भी कहते हैं। अभ्रपटल - अभ्रक, इसे भोडल भी कहते हैं। अभ्रबालुका - चमकने वाली कोई रेत । ये सब भेद बादर पृथिवीकायिक के हैं । इसके अनन्तर मणियों के भेदों को कहते हैं ।
शर्करा, उपल, शिला, वज्र और प्रवाल इनको छोड़कर बाकी के जो भेद ऊपर कहे शुद्ध पृथिवी के विकार हैं अर्थात् उन्हें शुद्ध पृथिवी कहते हैं । इनके पूर्व में कहे गए (शर्करा आदि) भेद तथा इस गाथा में और अगली गाथा में कहे जाने वाले भेद खरपृथिवी के विकार हैं अर्थात् उन्हें खरपृथिवो कहते हैं । अन्यत्र पृथिवी के शुद्धपृथिवी और खरपृथिवी ऐसे दो भेद किये गये हैं ।
गोमेद -- कर्केतनमणि । रुचक - राजावर्तमणि जो अलसी के फूल के समान वर्णवाली होती है । अंक --- पुलकमणि जो प्रवालवर्ण की होती है । स्फटिक - यह स्फटिक मणि स्वच्छ विशेष होती है। लोहितांक-- पद्मरागमणि, यह लाल होती है । चन्दप्रभ-यह चन्द्रकान्त मणि है । इसमें चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से अमृत झरता है । वैडूर्य - यह नीलवर्ण की होती
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