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________________ [मूलाच के ते षट्कारा इत्याह पुढवी आऊ तेऊ वाऊ य वणप्फदी तहा य तसा। छत्तीसविहा पुढवी तिस्से भेदा इमे णेया ॥२०॥ पुढवी--पृथिवी चतुष्प्रकारा पृथिवी पृथिवीशरीरं, पृथिवीकायिकः, पृथिवीजीवः । आपोऽप्कायोऽप्कायिको जीवः । तेजस्तेजस्कायस्तैजस्कायिकस्तेजोजीवः । वायुर्वायुकायो वायुकायिको वायुजीवः। वनस्पतिवनस्पतिकायो वनस्पतिकायिको वनस्पतिजीवः । यथा पृथिवी चतुष्प्रकारा तथाप्तेजोवायुवनस्पतयः, चशब्दतथाशब्दाभ्यां सूचितत्वात । जीवाधिकाराद् द्वयोर्द्वयोराद्ययोस्त्यागः शेषयोः सर्वत्र ग्रहणम। आद्यस्य प्रकारस्य भेदप्रतिपादनार्थमाह-छत्तीसविहा पुढवी-षडभीरधिका त्रिंशत् षट्त्रिंशद्विधा. प्रकारा यस्याः सा षत्रिंशत्प्रकारा पृथिवी।तिस्से-तस्याः। ॐवा-प्रकाराः। इमे-प्रत्यक्षवचनं । णेया-ज्ञेया ज्ञातव्याः ॥२०॥ वे छह प्रकार कौन हैं ? गाथार्थ-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये छह भेद हैं। पृथ्वी के छत्तीस भेद हैं उसके ये भेद जानना चाहिए ॥२०५॥ प्राचारवृत्ति-पृथिवी के चार प्रकार हैं—पृथिवी, पृथिवीशरीर, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव । जल, जलकाय, जलकायिक और जलजीव । अग्नि, अग्निकाय, अग्निकायिक और अग्निजीव । वायु, वायुकाय, वायुकायिक और वायुजीव। वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक और वनस्पति जीव। अर्थात् जैसे पृथिवी के चार भेद हैं वैसे ही जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के भी चार भेद हैं यह गाथा के 'च' शब्द और 'तथा' शब्द से सूचित है। यहाँ जीवों का अधिकार-प्रकरण होने से पृथिवी आदि के प्रत्येक के आदि के दो-दो भेद छोड़ने योग्य हैं अर्थात् वे निर्जीव हैं और शेष दो-दो भेदों को सभी में ग्रहण करना है क्योंकि वे ही जीव हैं। अर्थात् प्रथम भेद सामान्य पृथ्वी रूप है जिसके अन्दर अभी जीव नहीं हैं लेकिन आ सकता है। पृथिवीकाय से जीव निकल चुका है पुनः उसमें जीव नहीं आयेगा । जो पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय से पृथिवीपर्याय में पृथिवी शरीर को धारण किये हुए हैं तथा जिस जीव ने विग्रहगति में पृथिवी शरीर को अभी ग्रहण नहीं किया है वह पृथिवीजीव है। इनमें से आदि के दो निर्जीव और शेष दो जीव हैं। इनमें भी विग्रहगति सम्बन्धी पृथिवीजीव के घात का प्रश्न नहीं उठता है । एक प्रकार के, मात्र पृथिवीकायिक की ही रक्षा करने की बात रहती है । जीव के छह भेदों में जो सर्वप्रथम पृथ्वी का कथन आया है उसी के प्रतिपादन हेतु कहते हैं--पृथ्वी के छत्तीस भेद होते हैं, उनके नाम आगे बताते हैं, ऐसा जानना चाहिए। विशेषार्थ-मार्ग मे पड़ी हुई धूलि आदि पृथ्वी हैं । पृथ्वीकायिक जीव के द्वारा परित्यक्त ईट आदि पृथ्वीकाय हैं। जैसे कि मृतक मनुष्यादि की काया। पृथ्वीकायिक नाम कर्म के उदय से जो जीव पृथिवीशरीर को ग्रहण किये हुए हैं वे पृथिवीकायिक हैं जैसे खान में स्थित पत्थर आदि, और पृथ्वी में उत्पन्न होने के पूर्व विग्रहगति में रहते हुए एक, दो या तीन समय तक जीव पृथिवीजीव हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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