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________________ १६४] [मूलाचारे आचारः, वीर्यस्यानिह्नवो वीर्याचारः शुभविषयस्वशक्त्योत्साहः । पंचविधे-पंचप्रकारे। वोच्छं-वक्ष्ये कथयिष्यामि। अदिचारे-अतीचारान् प्रमादादन्यथाचरितानि। अहंकारादिदं अहं--आत्मनः प्रयोगः । कारिदे-कारितान् । अणुमोदिदे--अनुमतान् । चशब्दः समुच्चयार्थः । कदे-कृतान् । आचारे-दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्यभेदे पंचप्रकारे कृतकरितानुमतानतीचारानहं वक्ष्ये इति सम्बन्धः ॥१६॥ दर्शनातिचारप्रतिपादनाथं तावदाह ते चाष्टौ शंकादिभेदेन कुतो यत: दसणचरणविसुद्धी अट्टविहा जिणवरेहि णिद्दिट्ठा । दसणमलसोहणयं वोच्छं तं सुणह एयमणा ॥२००॥ दसणचरणविसुद्धी-दर्शनाचरणस्य विशुद्धिनिर्मलता दर्शनाचरणविशुद्धिः । अढविहा-अष्टविधाऽष्टप्रकारा। जिणवरेहि—कर्मारातीन् जयन्तीति जिनास्तेषां वरा: श्रेष्ठाः जिनवरास्तैः। णिहिट्ठानिर्दिष्टा कथिता । दसणमलसोहणयं-दर्शनस्य सम्यक्त्वस्य मलमतीचारस्तस्य शोधनकं निराकरणं दर्शनमलशोधनकं । वोच्छं- वक्ष्ये । तं-तत् । सुणह-शृणुत जानीध्वं । एयमणा-एकाग्रमनसः तद्गतचित्ताः । पूर्व संग्रहसूत्रेण दर्शनातीचारार्थं जिनवरैर्दर्शनविशुद्धिरष्टप्रकारा निर्दिष्टा यतोऽतस्तभेदादशुद्धिरप्यष्टविधा तदर्शनमलशोधनकं वक्ष्येऽहं यूयं शृणतैकाग्रमनस इति ॥२०॥ अष्टप्रकारा शुद्धिरुक्ता के तेऽष्टप्रकारा इत्यत आह-- प्रमाद से किये गये अन्यथा आचरण-विपरीत आचरण को अतिचार कहते हैं । उपर्युक्त पाँच प्रकार के आचारों में स्वयं करने से, और कराने और करते हुए को अनुमति देने रूप से जो अतिचार होते हैं, उन अतिचारों को मैं (वट्टकेराचार्य) कहूँगा। ____ अब दर्शन के अतिचारों को पहले कहते हैं। वे शंका आदि के भेद से आठ हैं। कैसे ? उसे ही बताते हैं गाथार्थ-जिनेन्द्रदेव ने दर्शनाचरण की विशुद्धि आठ प्रकार की कही है । अतः दर्शनमल के शोधन को मैं कहूँगा। तुम एकाग्रमन होकर सुनो ॥२०॥ __ आचारवृत्ति-जो कर्म-शत्रुओं को जीतते हैं वे जिन हैं। उनमें वर-श्रेष्ठ जिनवर हैं अर्थात् तीर्थंकर परमदेव को जिनवर कहते हैं। तीर्थंकर जिनेन्द्र ने दर्शनाचरण की विशुद्धि-निर्मलता को आठ प्रकार की कहा है। दर्शन-सम्यक्त्व के मल-अतीचार के शोधनक–निराकरण को मैं कहूँगा, उसे एकाग्रचित्त होकर आप सुनें। पूर्व में संग्रहसूत्र के द्वारा पाँच आचारों को कहने की प्रतिज्ञा की है। पुनः इस संग्रहसूत्र से दर्शन के अतिचार को प्ररूपित करने के लिए कहा है। अतः जिनेन्द्रदेव ने दर्शन की विशुद्धि आठ प्रकार की कही है अतः उन आठ भेदों से दर्शन की अशुद्धि (अतिचार) भी आठ प्रकार की ही हो जाती है। मैं दर्शनाचार के शोधन को कहूँगा, तुम सावधान होकर सुनो, ऐसा ग्रन्थकार ने कहा है। ... आपने शुद्धि आठ प्रकार की कही है। वे आठ प्रकार कौन हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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