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________________ पंचाचाराधिकारः ] कि वक्ष्ये ? किमर्थं वा नमस्कार इति पृष्टेऽत आह दंसणणाणचरिते तवेविरियाचारह्मि पंचविहे । वोच्छं प्रदिचारेऽहं कारिदे श्रणुमोदिदे श्र कदे ॥ १६६॥ दंसणं- दर्शनं सम्यक्त्वं तत्त्वरुचिः । णाणं ज्ञानं तत्त्वप्रकाशनं । चरित -चरित्रं पापक्रिया निवृत्तिः । नात्रविभक्त्यन्तरं प्राकृतलक्षणेनाकारस्यैकारः कृतो यतः । - तपः तपति दहति शरीरेन्द्रियाणि तपः वाह्याभ्यन्तरलक्षणं कर्मदहनसमर्थं । वीरियाचार - वीर्यं शक्तिरस्थिशरीरगतबलं, एतेषां द्वन्द्वः दर्शनज्ञानचारित्र तपोवीर्याणि तेषां तान्येव वा आचारो अनुष्ठानं तस्मिन् दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्याचारे । तत्त्वार्थविषयपरमार्थश्रद्धानुष्ठानं दर्शनाचारः । नात्रावलोकनार्थवाची दर्शनशब्दोऽनधिकारात् । पंचविधज्ञाननिमित्तं शास्त्रा+ ध्ययनादिक्रिया ज्ञानाचारः । प्राणिवधपरिहारेन्द्रियसंयमनप्रवृत्तिश्चारित्राचारः । कायक्लेशाद्यनुष्ठानं तप [१६३ त्रिभुवन के द्वारा मंदर पर पूजित अर्हन्तों को और सिद्धों को मैं नमस्कार करता हूँ। शेष विशेषण इन दोनों के ही हैं । अथवा यों समझिए कि सिद्धों को ही नमस्कार किया गया है। क्योंकि भूतपूर्वगति के न्याय से सभी विशेषण उनमें लग जाते हैं । अर्थात् भूतपूर्व में वे अर्हन्त थे ही थे, अर्हन्त से ही सिद्ध हुए हैं । यहाँ पर 'वक्ष्ये' इस क्रियापद का अध्याहार किया गया है । विशेष - यहाँ गाथा में सिद्धों को नमस्कार किया गया है, टीकाकार ने उसे अर्हन्तों में भी घटित किया है और 'वक्ष्ये' क्रिया को ऊपर से लेकर पंचाचार को कहने का संकेत दिया है । क्या कहूँगा ? सो ही बताते हैं । अथवा किसलिए नमस्कार किया है ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तरं देते हैं गाथार्थ -- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच प्रकार के आचार में कृत, कारित और अनुमोदना से हुए अतीचारों को कहूँगा ॥ १६६॥ श्राचारवृत्ति - सम्यक्त्व - तत्त्वरुचि का नाम दर्शन है । तत्त्व प्रकाशन का नाम ज्ञान है । पापक्रिया से दूर होना चारित्र है । जो शरीर और इन्द्रियों को तपाता है— दहन करता है वह तप है । वह बाह्य और अभ्यन्तर लक्षणवाला है और कर्मों को दहन करने में समर्थ है । हड्डी और शरीरगत बल को वीर्य कहते हैं । इन पाँचों का आचार - अनुष्ठान अथवा ये पाँच ही आचार - अनुष्ठान पंचाचार कहलाते हैं । परमार्थभूत जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना और उन्हीं रूप श्रद्धाविषयक अनुष्ठान करना दर्शनाचार है । यहाँ पर दृश् धातु से दर्शन बना है । उसका अवलोकन अर्थ नहीं लेना, क्योंकि उसका यहाँ अधिकार नहीं है । पाँच प्रकार के ज्ञान के निमित्त अध्ययन आदि क्रियाएँ करना ज्ञानाचार है । प्राणियों के वध का त्याग करना और इन्द्रियों के संयमन – निरोध में प्रवृत्ति होना चारित्राचार है । कायक्लेश आदि तपों का अनुष्ठान करना तप आचार है । शक्ति का नहीं छिपाना अर्थात् शुभविषय में अपनी शक्ति से उत्साह रखना वोर्याचार है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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