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________________ सामाचाराधिकारः] [१५५ अज्झयणे-अध्ययनेनधीतशास्त्रपठने । परिय-परिवर्तने पठितशास्त्रपरिपाट्यां। सवणेश्रवणे श्रुतस्याश्रुतस्य च शास्त्रस्यावधारणे । कहणे-कथने आत्मज्ञातशास्त्रान्यनिवेदने। अणुपेहाए-अनुप्रेक्षासु श्रुतसर्ववस्तु, वान्पत्वादिचिन्तासु श्रुतस्य शास्त्रस्यानुचिन्तने वा। तवविणयसंजमेसु य-तपश्च विनयश्च संयमश्च तयोविनयसंयमानेषु चानशतप्रायश्चित्तादिक्रियामनोवचनकाया (य) स्तब्धत्वेन्द्रियनिरोधजीववधपरित्यागेषु । अविरहिद-अविरहिताः स्थिता नित्योद्युक्ताः । उवओग---उपयोगः तात्पर्य ज्ञानाभ्यासः। 'जोग-योगो मनोवचनकायशुभानुष्ठानमेताभ्यां । जत्ताओ-युक्ताः उपयोगयोगयुक्ताः ॥१८॥ पनरपि ता: विशेष्यन्ते-- अविकारवत्थवेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाओ। धम्मकुलकित्तिदिक्खापडिरूपविसुद्धचरियाओ ॥१०॥ अविकारवत्थवेसा न विद्यते विकारो विकृतिः स्वभावादन्यथाभावो वा येषां तेऽ विकाराः वस्राणि च वेषश्च शरीरादिसंस्थानं च वस्त्रवेषा, अविकारा वस्त्रवेषायासांता अविकारवस्त्रवेषा रक्तांकितादिवस्त्रगतिभंगादिभ्र विकारादिवेषरहिता: । जल्लं-सर्वांगीनं प्रस्वेदयुक्तं रजः । अंगैकदेशभवं मलं-ताभ्यां विलित्ताविलिप्ता युक्ता जल्लमलविलिप्ताः । चत्तदेहाओ त्यक्तोऽसंस्कृतो देहः शरीरं यासां तास्त्यक्तदेहाः, जल्लमलविलिप्ताश्च तास्त्यक्तदेहाश्च तास्तथाभूताः । धम्म-धर्मः । कुलं-कुलं । कित्ति-कीर्तिः । दिक्खा-दीक्षा। प्राचारवृत्ति-विना पढ़े हुए शास्त्रों का पढ़ना अध्ययन है। पढ़े हुए शास्त्रों का पुनः पुनः पढ़ना (फेरना) परिवर्तन है । सुने हुए अथवा नहीं सुने हुए शास्त्रों का अवधारण करना श्रवण है । अपने जाने हुए शास्त्रों को अन्य को सुनाना कथन है। सुनी हुई सभी वस्तुओं के ध्र वान्यत्व-अनित्य आदि का चिन्तवन करना अथवा सुने हुए शास्त्रों का चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा है। अनशन आदि और प्रायश्चित्त आदि वाह्याभ्यन्तर तप हैं। मन-वचन-काय की स्तब्धता का न होना अर्थात् नम्रता का होना विनय है और इन्द्रिय निरोध तथा जीव-वध का परित्याग करना संयम है। इन अध्ययन आदि कार्यों में जो हमेशा लगी रहती हैं, उपयोग अर्थात् ज्ञानाभ्यास तथा योग अर्थात् मन-वचन-काय का शुभ अनुष्ठान, इन उपयोग और योग से सतत युक्त रहती हैं। पुनः वे किन विशेषताओं से युक्त होती हैं ? गाथार्थ-विकार रहित वस्त्र और वेष को धारण करने वाली, पसीनायुक्त मैल और धूलि से लिप्त रहती हुई वे शरीर संस्कार से शून्य रहती हैं। धर्म, कुल, कीति और दीक्षा के अनुकूल निर्दोष चर्या को करती हैं ।।१६०॥ प्राचारवृत्ति—जिनके वस्त्र, वेष और शरीर आदि के आकार विकृति से रहित, स्वाभाविक-सात्त्विक हैं. अर्थात जो रंग-विरंगे वस्त्र, विलासयक्त गमन और भ्र विकार कटाक्ष आदि से रहित वेष को धारण करने वाली हैं। सर्वांग में लगा हुआ पसीना से युक्त जो रज है वह जल्ल है। अंग के एक देश में होने वाला मैल मल कहलाता है। जिनका गात्र इन जल्ल और मल से लिप्त रहता है, जो शरीर के संस्कार को नहीं करती हैं ऐसी ये आर्यिकाएं क्षमा-मार्दव १ जोग पाठ मूलगाथा से अतिरिक्त है। Jain Education International For Priyate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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