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[मूलाचारे दिरहितः । सर्वस्मिन्नहोरात्र एषोपि सामाचारो यथायोग्यमाविकाणां आर्यिकाभिर्वा प्रकटयितव्यो विभावयितव्यो वा यथाख्यातः पूर्वस्मिन्निति ॥१८७॥
वसतिकायां ताः कथं गमयन्ति कालमिति पृष्टेऽत आह-----
अण्णोण्णणुकूलानो अण्णोण्णहिरक्खणाभिजुत्ताओ।
गयरोसवेरमायासलज्जमज्जादकिरियाप्रो ॥१८८॥
अण्णोण्णणुकलाओ-अन्योन्यस्यानुकूलास्त्यक्तमत्सरा अन्योन्यानुकलाः परस्परत्यक्तमात्सर्याः। अण्णोणहिरक्खणाभिजत्ताओ---अन्योन्यासां परस्पराणामभिरक्षणं प्रतिपालनं तस्मिन्नभियुक्ता उद्यक्ता अन्योन्याभिरक्षणाभियुक्ताः । गयरोसवेरमाया--रोषश्च वैरं च माया च रोषवैरमायाः गता विनष्टा रोषवैरमाया यासां ता गतरोषवरमायास्त्यक्तमोहनीयविशेषक्रोधमारणपरिणामकौटिल्याः। सलज्जमज्जादकिरियाओलज्जा च मर्यादा च क्रिया च लज्जामर्यादक्रियाः सह ताभिर्वर्तन्त इति सलज्जमर्यादकियाः लोकापतादादात्मनो भयपरिणामो लज्जा, रागद्वेषाभ्यां न्यायादनन्यथा वर्तनं मर्यादा, उभयकुमाचरणं क्रियते ॥१८८।।
पुनरपि ताः कथं विशिष्टा इत्यत आह
अज्झयणे परिय? सवणे कहणे तहाणुपेहाए ।
तवविणयसंजमेसु य अविरहिदुपयोगजोगजुत्ताओ ॥१८६॥ माने गये हैं जो कि यहाँ तक चार अध्यायों में मनियों के लिए वणित हैं। मात्र 'यथायोग्य' पद से टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें वक्षमल, आतापन, अभ्रावकाश और प्रतिमायोग आदि उत्तर योगों के करने का अधिकार नहीं है। और यही कारण है कि आर्यिकाओं के लिए पृथक् दीक्षाविधि या पृथक् विधि-विधान का ग्रन्थ नहीं हैं।
वे आर्यिकाएँ वसतिका में अपना काल किस प्रकार से व्यतीत करती हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं---
गाथार्थ—परस्पर में एक दूसरे के अनुकूल और परस्पर में एक दूसरे की रक्षा में तत्पर; क्रोध, वैर और मायाचार से रहित तथा लज्जा, मर्यादा और क्रियाओं से सहित रहती हैं॥१८॥
आचारवृत्ति—ये आर्यिकाएँ परस्पर में मात्सर्य भाव को छोड़कर एक दूसरे के अनुकूल रहती हैं, परस्पर एक दूसरे की रक्षा करने में पूर्ण तत्पर रहती हैं, मोहनीय कर्मविशेष के क्रोधभाव, वैरभाव-मारने या बदला लेने के भाव और कौटिल्यभावों से रहित होती हैं। लज्जा से सहित मर्यादा में रहने वालीं और उभयकल के अनरूप आचरण क्रिया से सद्रित होती हैं। लोकापवाद से डरते रहना लज्जागुण है। राग-द्वोष परिणाम से न्याय का उलंघन न करके प्रवृत्ति करना मर्यादा है अर्थात् अनुशासन में बद्ध रहना मर्यादा है । इन लज्जा और मर्यादा से सहित होती हुईं अपने पितकल और पतिकुल अथवा गुरुकुल के अनुरूप आचरण में तत्पर रहती हैं।
पुनरपि वे किन गुणों से विशिष्ट रहती हैं ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ-पढ़ने में, पाठ करने में, सुनने में, कहने में और अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन में तथा तप में, विनय में और संयम में नित्य ही उद्यत रहती हुई ज्ञानाभ्यास में तत्पर रहती हैं ॥१८॥
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