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________________ [मूलाचारे छेदरिहो — छेदार्हः प्रायश्चित्तयोग्यः संजातः । यदि स शिष्यः प्रायश्चित्तयोग्यो भवति तदानीं तस्य च्छेदः कर्तव्यः उपस्थापनं वा कर्तव्यं अथ नेच्छति छेदमुपस्थानं वा तं त्यजेत् । यदि पुनर्मोहात्तं गृह्णाति सोऽप्याचार्यश्छेदार्हो भवतीति ।। १६८ । तत ऊर्ध्वं किं कर्त्तव्यं ? इत्याह so] १४० एवं विधिणुदवष्णो एवं विधिणेव सोवि संगहिदो । सुत्थं सिवखंतो एवं कुज्जा पयत्तेण ॥ १६६ ॥ एवं कथितविधानेनैवंविधिना । उववण्णो — उत्पन्न उपस्थितः पादोष्णः तेनाप्याचार्येण एवंविधिना कथितविधानेन कृताचरणशोधनेन । सोवि-सोऽपि शिक्षकः । संगहिदो - संगृहीतः आत्मीकृतः सन् । एवं कुज्जा - एवं कुर्यात् एवं कर्तव्यं तेन । पयत्तेण – प्रयत्नेनादरेण । कथमेवं कुर्यात् ? सुत्तत्थं— सूत्रार्थं । सिक्खतो - शिक्षमाणः । सूत्रार्थं शिक्षमाणं कुर्यात् । सूत्रार्थं शिक्षमाणेनैतत्कर्तव्यमिति वा । किं तसेन कर्तव्यमित्याह पडिलेहिऊण सम्मं दव्वं खेत्तं च कालभावे य । विजयउवयारजुत्तेणज्भेदव्वं पयत्तेण ॥ १७० ॥ पडिलेहिऊण - प्रतिलेख्य निरूप्य । सम्मं - सम्यक् । वम्बं द्रव्यं शरीरगतं पिंड' कादिव्रणगतं भूमिगतं चर्मास्थिमूत्रपुरीषादिकं । खेत्तं च- क्षेत्रं च हस्तशतमात्रभूमिभागं । कालभावेय — कालभावी च यदि संघस्थ आचार्य उसे ग्रहण कर लेवें तो वे आचार्य भी प्रायश्चित्त के योग्य हो जाते हैं । अर्थात् यदि आचार्य शिष्यादि के मोह से उसे यों ही रख लेते हैं तो वे भी प्रायश्चित्त के पात्र हो जाते हैं । पुनः इससे बाद क्या करना चाहिए ? सो ही बताते हैं गाथार्थ - उपर्युक्त विधि से वह मुनि ठीक है और उपर्युक्त विधि से ही यदि आचार्य ग्रहण किया है तब वह प्रयत्नपूर्वक सूत्र के अर्थ को ग्रहण करता हुआ ऐसा करे ।। १६ ।। श्राचारवृत्ति - उपर्युक्त विधि से वह आगन्तुक मुनि यदि प्रायश्चित्त ग्रहण कर लेता है और आचार्य भी आगमकथित प्रकार से जब उसे प्रायश्चित्त देकर उसके आचरण को शुद्ध कर लेते हैं, उसको अपना लेते हैं तब वह मुनि भी आदरपूर्वक गुरु से सूत्र के अर्थ को पढ़ता हुआ आगे कही विधि के अनुसार ही अध्ययन करे । पुनः उस मुनि को क्या करना चाहिए ? सो कहते हैं गाथार्थ - - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सम्यक् प्रकार से शुद्धि करके विनय और उपचार से सहित होकर प्रयत्नपूर्वक अध्ययन करना चाहिए ॥ १७० ॥ Jain Education International श्राचारवृत्ति - शरीरगत शुद्धि द्रव्यशुद्धि है । जैसे शरीर में घाव, पीड़ा कष्ट आदि का नहीं होना । भूमिगत शुद्धि क्षेत्रशुद्धि है । जैसे चर्म, हड्डी, मूत्र मल आदि का सौ हाथ १. क पिटका । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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