SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाचाराधिकारः] [१३६ जदि चरणकरणसुद्धो णिच्चुज्जुत्तो विणीदमेधावी । तस्सिटुं कधिदव्वं सगसुदसत्तीए भणिऊण ॥६७॥ जइ--यदि । चरणकरणसुद्धो-चरणकरणशुद्धः चरणकरणयोर्लक्षणं व्याख्यातं ताभ्यां शुद्धः । णिच्चुज्जुत्तो-नित्योद्युक्तो विगतातीचारः। विणीद-विनीतः। मेधावी-बुद्धिमान् । तस्सिट्ठ---तस्येष्टं यथावाञ्छितं । कधिदव्वं-कथयितव्यं निवेदवितव्यं । सगसुदसतीए स्वकीयश्रुतशक्त्या यथास्वपरिज्ञानं । भणिऊण-भणित्वा प्रतिपाद्य । यद्यसौ चरणकरणशुद्धो विनीतो बुद्धिमान् नित्योद्युक्तश्च तदानीं तेनाचार्येण तस्येष्टं कथयितव्यं स्वकीयश्रुतशक्त्या भणित्वा भणतीति ।।.६७।। अथैवमसौ न भवतीति तदानीं कि कर्तव्यं ? इत्युत्तरमाह जदि इदरो सोऽजोग्गो छेदमुवट्ठावणं च कादव्वं । जदि णेच्छदि छंडेज्जो अध गिण्ह दि सोवि छेदरिहो ॥१६॥ जदि-~-यदि । इदरो—इतरो व्रतचरणैरशुद्धः । सो—सः आगन्तुकः । अजोगो-अयोग्यो देववन्दनादिभिः, अथवा योग्य: प्रायश्चित्तशास्त्रदृष्टः। छेदो-छेदः तपोयुक्तस्य कालस्य पादत्रिभागार्धादेः' परिहारः। उवट्ठापणं च-उपस्थापनं च । यदि सर्वथा व्रताद् भ्रष्टः पुनर्वतारोपणं । कादम्वो-कर्तव्यः करणीयः कर्तव्यं वा । जदि णेच्छदि-पदि नेच्छेत् अथ नाभ्युगच्छति अथवा लडन्तोयं प्रयोगः । छंडेज्जो-त्यजेत् परिहरेत् । अध गिण्हदि-अथ तादृग्भूतमपि छेदाहं तं गृह्णाति अदत्तप्रायश्चित्तं तदानीं। सोवि-सोप्याचार्यः। गाथार्थ-यदि वह क्रिया और चारित्र में शुद्ध है, नित्य उत्साही विनीत है और बुद्धिमान है तो श्रुतज्ञान के सामर्थ्य के अनुसार उसे अपना इष्ट कहना चाहिए ॥१६७॥ आचारवृत्ति-यदि आगन्तुक मुनि चारित्र और क्रियाओं में शुद्ध है, नित्य ही उद्यमशील है अर्थात् अतिचार रहित आचरण वाला है, विनयी और बुद्धिमान है तो वह जो पढ़ना चाहता है उसे अपने ज्ञान की सामर्थ्य के अनुसार पढ़ाना चाहिए। अथवा उसे संघ में स्वीकार करके उसे उसकी बुद्धि के अनुरूप अध्ययन कराना चाहिए। यदि वह मुनि उपर्युक्त गुण विशिष्ट नहीं है तो क्या करना चाहिए ? सो ही बताते हैं--- गाथार्थ-यदि वह अन्य रूप है, अयोग्य है, तो उसका छेद करके उपस्थापन करना वाहिए। यदि वह छेदोपस्थापना नहीं चाहता है और ये आचार्य उसे रख लेते हैं तो वे आचार्य भी छेद के योग्य हो जाते हैं ॥१६८।। आचारवृत्ति-यदि वह आगन्तुक मुनि व्रत और चारित्र से अशुद्ध है और देववन्दना आदि क्रियाओं से अयोग्य है तो उसकी दीक्षा का एक हिस्सा या आधी दीक्षा या उसका तीन भाग छेद करके पुनः उपस्थापना करना चाहिए। यदि सर्वथा वह व्रतों से भ्रष्ट है तो उसे पुनः व्रत अर्थात् पुनः दीक्षा देना चाहिए। यहाँ गाथा में जो 'अजोग्गो' पद है उसको 'जोग्गो'पाठ मानकर ऐसा भी अर्थ किया है कि उसे यथा योग्य प्रायश्चित्त शास्त्र के अनुसार छेद आदि प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि वह मुनि छेद या उपस्थापना प्रायश्चित्त नहीं स्वीकार करे फिर १.क 'देरपहारः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy