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________________ सामाचाराधिकारः ] 1-१३१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां विधातः, आत्मीयस्य कार्यस्य वा । संयमविराहणाविय - संयमस्य विराधनापि च, इन्द्रियप्रसरोऽविरतिश्च । एदेदु - एतानि तु । णिकाइया-निकाचितानि पापागमनकारणानि निश्चितानि पुष्टानि वा । ठाणाणि - स्थानानि । अपि च शब्दादन्यान्यपि कृतानि भवन्ति इत्यध्याहारः । एकाकिनो विहरत एतानि पंचस्थानानि भवन्त्येवान्यानि पुनर्भाज्यानीति । एवंभूतस्य तस्य सश्रुतस्य ससहायस्य विहरतः कथंभूते गुरुकुले वासो न कल्पते इत्याह उत्तर—एक देश ग्रहण से भी पूर्ण पद के अर्थ का ज्ञान होता है जैसे कि 'भामा' के कहने से सत्यभामा का ग्रहण हो जाता है और 'सेन' शब्द के ग्रहण से भीमसेन का ग्रहण होता है । अथवा आगे १७९ वीं गाथा में 'आज्ञाकोपादयः पंचापि दोषाः कृतास्तेन' ऐसा पाठ है । वहाँ पर आज्ञाकोप शब्द लिया है । यदि यहाँ पर आज्ञा का ही ग्रहण किया जावे तो आगे आज्ञाकोप आदि पाँचों भी दोष उसने किये हैं, ऐसा कैसे कहते ? इसलिए यहाँ पर प्राकृत व्याकरण के नियम से 'कोप' शब्द का लोप करके निर्देश किया है ऐसा जानना । अनवस्था का अर्थ अतिप्रसंग है अर्थात् अन्य मुनि भी उसे एकाकी देखकर वैसी ही प्रवृत्ति करने लग जावेगे यह अनवस्था दोष आयेगा तब कहीं कुछ व्यवस्था नहीं बन सकेगी । तथा मिथ्यात्व का सेवन होना यह तृतीय दोष आवेगा । आत्मनाश अर्थात् अपने सम्यग्दर्शनज्ञान- चरित्र का विघात हो जावेगा । अथवा अपने निजी कार्यों का विनाश हो जावेगा । संयम की विराधना भी हो जावेगी अर्थात् इन्द्रियों का निग्रह न होकर उनकी विषयों में प्रवृत्ति तथा अविरत परिणाम भी हो जायेंगे । ये पाँच निकाचित स्थान अर्थात् पाप के आने के कारणभूत स्थान निश्चित रूप या पुष्ट हो जावेंगे। अपि शब्द से ऐसा समझना कि अन्य भी पापस्थान उस मुनि के द्वारा किये जा सकेंगे अर्थात् जो एकलविहारी बनेंगे उनके ये पाँच दोष तो होंगे ही होंगे, अन्य भी दोष हो सकते हैं वे वैकल्पिक हैं । 1 भावार्थ- जो मुनि स्वच्छन्द होकर एकाकी विचरण करते हैं सबसे पहले तो वे जिनेन्द्र देव की आज्ञा का उलंघन करना - यह एक पाप करते हैं । उनकी देखा-देखी अन्य मुनि भी एकाकी विचरण करने लगते हैं । और तब ऐसी परम्परा चलने लग जाती है - यह दूसरा अनवस्था नामक दोष है । लोगों के संसर्ग से अपना सम्यक्त्व छूट जाता है और मिथ्यात्व के संसर्ग से मिथ्यात्व के संस्कार बन जाते हैं - यह तीसरा दोष है। उस मुनि के अपने निजी गुणसम्यग्दर्शन आदि हैं जिन्हें बड़ी मुश्किल से प्राप्त किया है, उनकी हानि हो जाती हैयह चौथा पाप होता है और असंयमी निरर्गल जीवन हो जाने से संयम की विराधना भी हो जाती है । ये पाँच निकाचित अर्थात् निश्चित रूप से मजबूत पापस्थान तो होते ही होते हैं, अन्य भी दोष संभव हैं । इसलिए जिनकल्पी - उत्तम संहनन आदि गुणों से युक्त मुनि के सिवाय सामान्य - अल्पशक्तिवाले मुनियों को एकलविहारी होने के लिए जिनेन्द्रदेव की आज्ञा नहीं है। इसप्रकार के श्रुत सहित और सहाय सहित जो साधु विहार करता है उसे किस प्रकार के गुरुकुल में निवास करना ठीक नहीं है ? सो ही बताते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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