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________________ [मूलाचारे क्षितभोगः ग्रहिको वा । माइल्लो-मायावी कुटिलभावः। अलस-आलस्ययुक्तः उद्योगरहितः । लुद्धोलुब्धः अत्यागशीलः । णिद्धम्मो-निर्धर्मः पापबुद्धिः । गच्छेवि-गुरुकुलेऽपि ऋषिसमुदायमध्येऽपि त्रैपुरुषिको गणः, साप्तपुरुषिको गच्छः । संवसंतो संवसन् तिष्ठन्। णेच्छइ–नेच्छति नाभ्युपगच्छति । संघाडयंसंघाटकं द्वितीयं । मंदो-मंद: शिथिलः । कश्चिन्निधर्मोऽलसो लुब्धो मायावी गौरविक: कांक्षावान् गच्छेऽपि संवसन द्वितीयं नेच्छति शिथिलत्वयोगादिति ॥१५३।। किमेतान्येव पापस्थानानि एकाकिनो विहरतो भवन्तीत्युतान्यान्यपीत्यत आह प्राणा अणवत्थाविय मिच्छत्ताराहणादणासो य । संजमविराहणाविय एदे दुणिकाइया ठाणा ॥१५४॥ आणा-आज्ञा कोप: सर्वज्ञशासनोल्लंघनं । नन्वाज्ञाग्रहणात्कथमाज्ञाभंगस्य ग्रहणं, एकदेशग्रहणात यथा भामाग्रहणात् सत्यभामाया ग्रहणं सेनग्रहणाद्वा भीमसेनस्य । अथवोत्तरत्राज्ञाकोपादिग्रहणाद्वा । यद्यत्राज्ञाया एव ग्रहणं स्यादुत्तरत्र कथमाज्ञाकोपादिकाः पंचापि दोषाः कृतास्तेनेत्याचार्यो भणति तस्मात्प्राकृतलक्षणबलात कोपशब्दस्य नित्ति कृत्वा निर्देशः कृतः । अणवत्था-अनवस्था अतिप्रसंगः, अन्येऽपि तेनैवप्रकारेण प्रवर्तेरन । अवि य-अपि च । मिच्छत्ताराहणा-मिथ्यात्वस्याराधना सेवा। आदणासो य-आत्मनो नाशश्चात्मीयानां हआ अन्य मुनियों की अवहेलना करता है, जो भोगों की आकांक्षा करनेवाला है अथवा हठग्राह है, कुटिल स्वभावी है, आलसी होने से उद्योग-पुरुषार्थ रहित है, लोभी है, पापबुद्धि है और मन्द शिथिलाचारी है ऐसा मुनि गुरुकुल-ऋषियों के समुदाय के मध्य रहता हुआ भी द्वितीय मुनि का संसर्ग नहीं चाहता है अर्थात् अकेला ही उठना, बैठना, बोलना आदि चाहता है अन्य मुनि के निकट बैठना, उठना पसन्द नहीं करता है। यहाँ पर मूल में 'गच्छ' शब्द है । तदनुसार तीन पुरुषों के समूह को गण और सात पुरुषों के समूह को गच्छ कहते हैं । भावार्थ-शिष्य, पुस्तक, पिच्छिका, कमण्डलु इत्यादि पदार्थ मेरे समान अन्य मुनियों के सुन्दर नहीं हैं ऐसा गर्व करना तथा दूसरों का तिरस्कार करना ऋद्धिगौरव है। भोजनपान के पदार्थ अच्छे स्वादयुक्त मिलते हैं ऐसा गर्व करना यह रसगौरव है। मैं बड़ा सुखी हूँ इत्यादि गर्व करना सातगौरव है। ऐसा गौरव करनेवाला मुनि उपयुक्त अन्य भी अवगुणों से सहित हो, संघ में रहकर भी यदि एकाकी बैठना, उठना पसंद करता हुआ स्वच्छन्द रहता है तो वह भी दोषी है। ___ एकाकी विहार करनेवाले मुनि के क्या इतने ही पापस्थान होते हैं अथवा अन्य भी होते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं गाथार्थ-एकाकी रहनेवाले के आज्ञा का उलंघन, अनवस्था, मिथ्यात्व का सेवन, आत्मनाश और संयम की विराधना ये पाँच पापस्थान माने गए हैं ॥१५४॥ प्राचारवृत्ति-अकेले विहरण करनेवाले मुनि के सर्वशदेव की आज्ञा का उलंघन होना यह एक दोष होता है। प्रश्न-गाथा में मात्र 'आज्ञा' शब्द है । इतने मात्र से 'आज्ञा का भंग होना' ऐसा अर्थ आप टीकाकार कैसे करते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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