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________________ सामाचाराधिकारः ] किं तत्पृच्छति इत्यत्रोच्यते तुझं पादपसाएण अण्णमिच्छामि गंतुमायदणं । तिष्णि व पंच व छा वा पुच्छाप्रो एत्थ सो कुणइ ॥ १४६ ॥ तुम्भं पादपसादेण-त्वत्पादप्रसादात् त्वत्पादानुज्ञया । अण्णं - अन्यत् । इच्छामि - अभ्युपैमि । गंतुं यातुं । आयदणं - सर्वशास्त्रपारंगतं चरणकरणोद्यतमाचार्यं, यद्यपि षडायतनानि लोके सर्वज्ञः, सर्वज्ञालयं, ज्ञानं ज्ञानोपयुक्तः, चारित्र, चारित्रोपयुक्त इति भेदाद्भवन्ति तथापि ज्ञानोपयुक्तस्याचार्यस्य ग्रहणमधिकारात् । किमेकं प्रश्नं करोति नेत्याह तिष्णि व- तिस्रः । पंच व पंच वा । छा व षड् वा । चशब्दाच्चतस्रोधिका वा । पुच्छाओ— पृच्छाः प्रश्नान् । एत्थ – अत्रावसरे । कुर्णादि - करोति । अनेनात्मोत्साहो विनयो वा प्रदर्शितः । भट्टारकपादप्रसन्नैः अन्यदायतनं गंतुमिच्छामीत्यनेन प्रकारेण तिस्रः पंच षड्वा पृच्छाः सोऽत्र करोतीति । 1 ततः किं करोत्य सावित्याह [ १२५ एवं प्रापुच्छित्ता सगवर गुरुणा विसज्जिश्रो संतो । अप्प उत्थो तदिओ बिदिश्रो वासो तदो णोदी ॥ १४७ ॥ एवं पूर्वोक्तेन न्यायेन । आपुच्छित्ता - आपृच्छ्याभ्युपगमय्य । सगवर गुरुणा — स्वकीयवरगुरुभिः वह शिष्य गुरु से क्या पूछता है ? सो ही बताते हैं -गाथार्थ - 'आपके चरणों की कृपा अब 'अन्य आयतन को प्राप्त करना चाहता हूँ' इस तरह वह मुनि इस विषय में तीन बार या पाँच-छह बार प्रश्न करता है ॥१४६॥ श्राचारवृत्ति – मुनि अपने आचार्य से प्रार्थना करता है, 'हे भगवन् ! आप भट्टारक के चरणकमलों की प्रसन्नता से, आपकी आज्ञा से अन्य आयतन को प्राप्त करना चाहता हूँ ।' तेरह प्रकार के चारित्र और तेरह प्रकार की क्रियाओं में उद्यत, सर्वशास्त्रों में पारंगत आचार्य को यहाँ आयतन शब्द से कहा है । यद्यपि लोक में छह आयतन प्रसिद्ध हैं - सर्वज्ञदेव, सर्वज्ञ का मन्दिर, ज्ञान, ज्ञान से संयुक्त ज्ञानी, चारित्र और चारित्र से युक्त साधु ये छह माने हैं फिर भी यहाँ प्रकरण वश ज्ञानोपयुक्त आचार्य को ही ग्रहण करना चाहिए क्योंकि उन्हीं के विषय में यह अधिकार है । वह मुनि ऐसे ज्ञान में अधिक किन्हीं अन्य आचार्य के पास विशेष अध्ययन के लिए जाने हेतु अपने गुरु से एक बार ही नहीं, तीन चार या पाँच अथव। छह बार पूछता है । प्रश्न यह हो सकता है कि बार-बार पूछने का क्या हेतु है सो आचार्य बताते हैं कि बार-बार पूछने से अपना उत्साह प्रकट होता है अथवा विशेष विनय प्रकट होती है । अर्थात् पुनः पुनः आज्ञा लेने से आचार्य के प्रति विशेष विनय और अपना अधिक ज्ञान प्राप्त करने में उत्साह मालूम होता है । पुनः वह मुनि क्या करता है ? सो बताते हैं गाथार्थ - इस प्रकार गुरु से पूछकर और अपने पूज्य गुरु से आज्ञा प्राप्त वह मुनि अपने सहित चार या तीन, दो मुनि होकर वहाँ से विहार करता है ॥ १४७॥ श्राचारवृत्ति - इस प्रकार से वह मुनि अपने दीक्षागुरु, विद्यागुरु आदि से आज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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