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________________ १२४] कोई सव्वमत्थो सगुरुसुदं सव्वमागमित्ताणं । fauryaक्कमत्ता पुच्छइ सगुरुं पयतेण ॥ १४५ ॥ कोई --- कश्चित् । सव्वसमत्यो — सर्वैरपि प्रकारैर्वीर्यधैर्यविद्याबलोत्साहादिभिः समर्थः कल्पः सर्वसमर्थः । सगुरुदं – स्वगुरुश्रुतं आत्मीयगुरुपाध्यायागतं शास्त्रं । सव्वं - सर्व निरवशेषं । आगमित्ताणं – आगम्य ज्ञात्वा । बिएण— विनयेन मनोवचनकायप्रणामैः । उवक्कमित्ता — उपक्रम्य प्रारभ्योपढौक्य । पुच्छविपृच्छति अनुज्ञां याचते । सगुरुं -- स्वगुरु । पयत्तेण — प्रयत्नेन प्रमादं त्यक्त्वा । कश्चित् सर्वशास्त्राधिगमबलोपेतः स्वगुरुशास्त्रमधिगम्य, अन्यदपि शास्त्रमधिगन्तुमिच्छन् विनयेनोपक्रम्य प्रयत्नेन स्वगुरु पृच्छति गुरुणानुज्ञातेन गन्तव्यमित्युक्तं भवति । [मूलाचारे यहाँ पर हुण्डावसर्पिणी की अपेक्षा से वैदिक शास्त्र का ग्रहण किया है । अथवा सभी कालों में नयों का अभिप्राय सम्भव है इसलिए वैदिक को भी सर्वकाल में माना जा सकता है । अथवा वेद अर्थात् सिद्धान्त और समय अर्थात् तर्कादि सम्बन्धी ग्रन्थ इनके विषय में उपसंपत् समझना । इस प्रकार से महान् गुरुकुल में अपना आत्म समर्पण करना यह उपसंपत् है इसका कथन पूर्ण हुआ । विशेषार्थ-व्याकरण, गणित आदि शास्त्रों को लौकिक शास्त्र कहते हैं। द्वादशांग श्रुत, प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोग; सिद्धान्त ग्रन्थ - षट्खण्डागम, कसायपाहुड, महाबन्ध आदि तथा स्याद्वादन्याय, प्रमेयकमलमार्तण्ड, समयसार आदि अध्यात्मशास्त्र ये सभी समयरूप अर्थात् सामायिक शास्त्र कहलाते हैं । वैदिक - ऋग्वेद आदि वेदों को वैदिक शास्त्र कहते हैं यह कथन वर्तमान के हुण्डावसर्पिणी की अपेक्षा है। पुनः टीकाकार ने यह भी कहा है कि नयों के अभिप्राय से सभी कालों में भी ग्रहण कर लिया गया है क्योंकि इन वेदों का ज्ञान भी कुनयों अन्तर्भूत है । अथवा अन्य लक्षण भी टीकाकार ने किया है यथा- 'वेद' से सिद्धान्त शास्त्रों का ग्रहण है और 'समय' से तर्कादि शास्त्रों का ग्रहण किया है। चूंकि प्रथमानुयोग आदि चारों अनुयोगों को वेदसंज्ञा है और स्वसमय परसमय से स्वमत परमत के विषय में परमत का खण्डन करके स्वमत का मण्डन करनेवाले न्यायग्रन्थ ही हैं । यहाँ तक औधिक समाचार नीति का वर्णन हुआ। अब पदविभागी समाचार का निरूपण करते हुए कहते हैं गाथार्थ – कोई सर्वसमर्थ साधु अपने गुरु के सम्पूर्ण श्रुत को पढ़कर, विनय से पास आकर और प्रयत्नपूर्वक अपने गुरु से पूछता है ॥ १४५॥ Jain Education International श्राचारवृत्ति - वीरता, धीरता, विद्या, बल और उत्साह आदि सभी प्रकार के गुणों से समर्थ कोई मुनि अपने दीक्षागुरु या अपने संघ के उपाध्याय - विद्यागुरु के उपलब्ध सभी शास्त्रों को पढ़कर पुनः अन्यान्य शास्त्रों को पढ़ने की इच्छा से उनके पास आकर विनयपूर्वक - मन-वचन-कायपूर्वक प्रणाम करके प्रयत्न से उनसे पूछता है अर्थात् अन्य संघ में जाने की आज्ञा माँगता है । अभिप्राय यह है कि गुरु की आज्ञा मिलने पर ही जाना चाहिए अन्यथा नहीं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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