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________________ १२२] पाहुणवत्यव्वाणं अण्णोष्णागमणगमणसुहपुच्छा । उपसंपदा य मग्गे संजमतवणाणजोगजुत्ताणं ॥ १४२ ॥ पाहुणवत्यव्वाणं - पादोष्णवास्तव्यानां आगन्तुकस्वस्थानस्थितानां । अण्णोष्णं अन्योन्यं परस्परं । आगमणगमण - आगमनं च गमनं चागमनगमने तयोर्विषये सुहपुच्छा - सुखप्रश्नः किं सुखेन तत्रभवान् गत आगतश्च । उपसंपदा य - उपसंपत् । मग्गे — मार्गे पथिविषये । संजमतवणााणजोगजुत्ताणं- संयमतपोज्ञानयोगयुक्तानां । पादोष्णवास्तव्यानां अन्योऽन्यं योऽयं गमनागमनसुखप्रश्नः सा मार्गविषयोपसम्पदित्यत्रोच्यत इति । अथ का सुखदुःखोपसम्पदित्यत्रोच्यते- सुहदुक्खे उवयारो वसही श्राहार मेसजा दीहिं । तु अहंति वयणं सुदुक्खुवसंपया णेया ॥ १४३॥ [मूलाचारे सुहदुक्खे—– सुखदुःखयोर्निमित्तभूतयोः, अथवा तद्योगात्ताच्छन्द्यं सुखदुःखयुक्तयोः पुरुषयोरिति । उवयारो उपचारः उपग्रहः । वसहोआहारभेसजा दीहिं— वसतिकाहारभैषज्यादिभिः सुखिनो निर्वृत्तस्य शिष्यादिलाभे कुंडिकादिदानं, दुःखिनो व्याध्युपपीडितस्य सुखशय्यासनौषधान्नपानमर्दनादिभिरुपकार उपचारः । तुम्हं अहंति वयणं - युष्माकमहमिति वचनं युष्माभिर्यदादिश्यते तस्य सर्वस्याहं कर्ता इति । अथवा युष्मा गाथार्थ - संयम, तप, ज्ञान और ध्यान से युक्त आगन्तुक और स्थानीय अर्थात् उस संघ में रहनेवाले साधुओं के बीच जो परस्पर में मार्ग से आने-जाने के विषय में सुख समाचार पूछना है वह मार्गोपसंपत् है । । १४२ ॥ श्राचारवृत्ति - जो संयम, तप, ज्ञान और ध्यान से सहित हैं ऐसे साधु यदि विहार करते हुए आ रहे हैं तो वे आगन्तुक कहलाते हैं । ऐसे साधु यदि कहीं ठहरे हुए हैं तो वे वास्तव्य कहलाते हैं । यदि आगन्तुक साधु किसी संघ में आये हैं तो वे साधु और अपने स्थान - वसतिका आदि में ठहरे हुए साधु आपस में एक-दूसरे से मार्ग के आने-जाने से सम्बन्धित कुशल प्रश्न करते हैं अर्थात् 'आपका विहार सुख से हुआ है न ? आप वहाँ से सुखपूर्वक तो आ रहे हैं न ?” इत्यादि मार्ग विषयक सुख- समाचार पूछना मार्गोपसंपत् है । Jain Education International अब सुखदुःखोपसंपत् क्या है ? ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं गाथार्थ-साधु के सुख-दुःख में वसतिका, आहार और औषधि आदि से उपचार करना और 'मैं आपका ही हूँ' ऐसा वचन बोलना सुखदुःखोपसंपत् है ॥१४३॥ श्राचारवृत्ति - यहाँ सुख-दुःख निमित्तभूत हैं इसलिए साधुओं के सुख-दुःख के प्रसंग में अथवा सुख-दुःख से युक्त साधुओं का वसतिका आदि के द्वारा उपचार करना अर्थात् यदि साधु सुखी हैं और उन्हें यदि मार्ग में शिष्य आदि का लाभ हुआ है तो उन्हें उनके लिए उपयोगी पिच्छी, कमण्डलु आदि देना और यदि आगन्तुक साधु दुःखी हैं, व्याधि आदि से पीड़ित हैं तो उनके लिए सुखप्रद शय्या, संस्तर आदि आसन, औषध, अन्न-पान से तथा उनके हाथ-पैर दबाना आदि वैयावृत्ति से उनका उपकार करना । 'मैं आपका ही हूँ, आप जो आदेश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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