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________________ सामाचाराधिकारः ] [ १२१ अंगमर्दनप्रियवचनादिको विनयः आसनादिदानमुपचारः । आवासभूमिसंपुच्छा - आवासः स्थानं गुरुगृहं भूमिः मार्गोऽध्वा तयोः संपृच्छा संप्रश्नः आवासभूमिसंप्रश्नः । दाणं - दानं संस्तरपुस्तकशास्त्रोपकरणादिनिवेदनं । अणुवत्तणादी - अनुवर्तनादयस्तदनुकूलाचरणादयः । विणये उवसंपया - विनयोपसम्पत् । णेया- ज्ञेया । पादोष्णानां विनयोपचारकरणं यत्तेषां चावासभूमिसम्पृच्छ्या दानानुवर्तनादयश्च ये तेषां क्रियन्ते तत्सर्वं विनयोपसम्पदुच्यते । सर्वत्रात्मनः समर्पणं तस्य वा ग्रहणमुपसम्पदिति यतः । का क्षेत्रोपसम्पदित्यत्रोच्यते संजमतवगुणसीला जमणियमादी य जह्मि खेत । वति त िवासो खेत्ते उवसंपया या ॥ १४१ ॥ संजमतवगुणसीला - संयमतपोगुणशीलानि । यमणियमादी य - यमनियमादयश्च आमरणात्प्रतिपालनं यमः कालादिपरिमाणेनाचरणं नियमः, व्रतपरिरक्षणं शीलं, कायादिखेदस्तपः, उपशमादिलक्षणो गुणः, प्राणेन्द्रियसंयमनं संयमः, अतो नैषामैक्यं । जह्मि- यस्मिन् । खेत्तं हि — क्षेत्रे । वढति - वर्द्धन्ते उत्कृष्टा भवति । - तस्मिन् वासो वसनं । खेत्ते उपसंपया--क्षेत्रोपसम्पत् । णेया- ज्ञेया । यस्मिन् क्षेत्र संयमतपोगुणशीलानि यमनियमादयश्च वर्द्धन्ते तस्मिन् वासो यः सा क्षेत्रोपसम्पदिति । तृतीयायाः स्वरूपप्रतिपादनार्थमाह--- करना, प्रिय वचन बोलना आदि विनय है । उन्हें आसन आदि देना उपचार है । आप किस गुरुगृह के हैं ? किस मार्ग से आये हैं अर्थात् आप किस संघ में दीक्षित हुए हैं या आपके दीक्षागुरु का नाम क्या है ? और अभी किस मार्ग से विहार करते हुए यहाँ आये हैं ? ऐसा प्रश्न करना, तथा उन्हें संस्तर - घास, पाटा, चटाई आदि देना, पुस्तक - शास्त्र आदि देना, उनके अनुकूल आचरण करना आदि सब विनयोपसंपत है। तात्पर्य यह है कि आगन्तुक साधु के प्रति उस समय जो भी विनय व्यवहार किया जाता है वह विनयोपसंपत् है । सब प्रकार से उन्हें आत्मसमर्पण करना या उनको सभी तरह से अपने संघ में ग्रहण करना यह विनयोपसंपत् है । अब क्षेत्रोपसंपत् को बतलाते हैं गाथार्थ -- जिस क्षेत्र में संयम, तप, गुण, शील तथा यम और नियम वृद्धि को प्राप्त होते हैं उस क्षेत्र में निवास करना, यह क्षेत्रोपसंपत् जानना चाहिए ।। १४१ ॥ प्राचारवृत्ति - प्राणियों की रक्षा और इन्द्रिय - निग्रह को संयम कहते हैं । शरीर आदि को जिससे खेद उत्पन्न हो वह तप है । उपशम आदि लक्षणवाले गुण कहलाते हैं और व्रतों के रक्षक को शील कहते हैं । जिनका आमरण पालन किया जाय वह यम है तथा काल आदि की अवधि से पाले जानेवाले नियम कहलाते हैं । इस प्रकार से इनके लक्षणों की अपेक्षा भेद हो जाने से इन सभी में ऐक्य सम्भव नहीं है । ये संयम आदि जिस क्षेत्र - देश में वृद्धिंगत होते हैं उस देश में ही रहना यह क्षेत्रोपसंपत् है । अब मार्गोपसंपत् का लक्षण बताते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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