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________________ सामाचाराधिकारः] [११५ अण्णे-अन्यस्मिन् परविषये औषधादिके परनिमित्ते वा । अथवा' च द्रष्टव्यः । एतेषां याचने परनिमित्तमात्मनिमित्तं वा इच्छाकारः कर्तव्यः मनः प्रवर्तयितव्यं, न केवलमत्र किन्तु, जोगग्गहणादिसु य-योगग्रहणादिष च आतापनवृक्षालाभ्रावकाशादिषु च कि वहुना शुभानुष्ठाने सर्वत्र परिणामः कर्तव्य इति ।।१३१॥ अथ कस्यापराधे मिथ्याकारः स इत्याह जं दुक्कडं तु मिच्छा तं णेच्छदि दुक्कडं पुणो कादं। भावेण य पडिकतो तस्स भवे दुक्कडे मिच्छा ॥१३२॥ यदुष्कृतं यत्पापं मया कृतं तदुष्कृतं मिथ्या मम भवतु, अहं पुनस्तस्य कर्ता न भवामीत्यर्थः । एवं यन्मिथ्यादुष्कृतं कृतं तु तदुष्कृत पुन. कतु नेच्छेत् न कुर्यात् । भावेन च प्रतिक्रान्तो यो न केवलं वचसा किन्तु मनसा कायेन च वर्तमानातीतभविष्यत्काले तस्यापराधस्य यो न कर्ता तस्य दुष्कृते मिथ्याकार इति । अथ किं तत्प्रतिश्रवणं यस्मिन् तथाकार इत्यत आह इस ज्ञान के उपकरण पुस्तक आदि हैं। अन्य शब्द से तप आदि को लिया है। इन तप आदि के उपकरण कमण्डलु और आहार आदि हैं। इनके लिए याचना करने में या इन के विषयों में इच्छाकार करना चाहिए। तथा अन्य और जो पर विषय अर्थात् औषधि आदि हैं उनके लिए या अन्य साधु-शिष्य आदि के भी उपर्युक्त वस्तुओं में इच्छाकार करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि इन पिच्छी, पुस्तक आदि को पर के लिए या अपने लिए याचना करने में इच्छाकार करना चाहिए अर्थात् मन को प्रवृत्त करना चाहिए। केवल इनमें ही नहीं, आतापन वृक्षमूल अभ्रावकाश आदि योगों के करने में भी इच्छाकार करना चाहिए। अधिक कहने से क्या, सर्वत्र शुभ अनुष्ठान में परिणाम करना चाहिए। किस अपराध में मिथ्याकार होता है ? सो ही बताते हैं गाथार्थ-जो दुष्कृत अर्थात् पाप हुआ है वह मिथ्या होवे, पुनः उस दोष को करना नहीं चाहता है और भाव से प्रतिक्रमण कर चुका है उसके दुष्कृत के होने पर मिथ्याकार होता है ।।१३२॥ प्राचारवत्ति-जो पाप मैंने किये हैं वे मिथ्या होवें, पुनः मैं उनका करने वाला नहीं होऊँगा। इस प्रकार से जिस दुष्कृत को मिथ्या किया है, दूर किया है उसको पुनः करने की इच्छा न करे, इस तरह जो केवल वचन या काम से ही नहीं किन्तु मन से-भाव से भी जिसने प्रतिक्रमण किया है, जो साधु भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल में भी उस अपराध को नहीं करता है उस साधु के दुष्कृत में मिथ्याकार नामक समाचार होता है। अर्थात् किसी अपराध के हो जाने पर 'मेरा यह दुष्कृत मिथ्या होवे' ऐसा कहना मिथ्याकार है। वह प्रतिश्रवण क्या है कि जिसमें तथाकार किया जाय ? अर्थात् तथाकार करना चाहिए, सो ही बताते हैं १. बात्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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