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________________ ११२] [मूलाचारे प्रवर्तनं । मिच्छाकारो - मिथ्याकारः कायमनसा निवर्तनं । तहेब - तथैव । क्य, अवराहे- अपराधेऽशुभपरिणामे व्रताद्य तिचारे । पडिसुणणंहि — प्रतिश्रवणे सूत्रार्थग्रहणे, तहसि य-तथेति च यथैव भवद्भिः प्रतिपादितं तथैव नान्यथेत्येवमनुरागः । णिग्गमणे – निर्गमने गमनकाले । आसिमा- आसिका देवगृहस्थावीन् परिपृच्छ्य यानं पापक्रियादिभ्यो मनो निर्वर्तनं वा । भणिया - भणिताः कथिताः । पविसंते य-प्रविशति च प्रवेशकाले । णिसिही- निषेधिका तत्रस्थानभ्युपगम्य स्थानकरणं सम्यग्दर्शनादिषु स्थिरभावो वा । आपुच्छणिया य - आपृच्छनीयं च गुर्वादीनां वन्दनापूर्वकं प्रश्नकरणं । सकज्जआरंभ - स्वस्यात्मनः कार्यं प्रयोजनं तस्यारम्भ आदिक्रिया स्वकार्यारम्भस्तस्मिन् पठनगमनयोगादिके । साधम्मिणा य- समानो धर्मोऽनुष्ठानं गुरुर्वा यस्यासौ सधर्मा तेन सधर्मणा च । गुरुणा — दीक्षा शिक्षोपदेशकर्त्रा तपोऽधिकज्ञानाधिकेन वा, पुण्यमिसिट्टिम्हि पूर्वस्मिन्निसृष्टं प्रतिदत्तं समर्पितं यद्वस्तुपकरणादिकं तस्मिन् पूर्वनिसृष्टे वस्तुनि पुनर्ग्रहणा इच्छाकार होता है । अर्थात् इनको स्वीकार करना इनमें हर्षभाव होना, इनमें स्वेच्छा से प्रवृत्ति करना ही इच्छाकार है । अपराध अर्थात् अशुभ परिणाम अथवा व्रतादि में अतिचार होने पर मिथ्याकार होता है । अर्थात् मन-वचन-काय से इन अपराधों से दूर होना मिथ्याकार है । प्रतिश्रवण अर्थात् गुरु के द्वारा सूत्र और अर्थ प्रतिपादन होने पर उसे सुनकर 'आपने जैसा प्रतिपादित किया है वैसा ही है, अन्यथा नहीं' ऐसा अनुराग व्यक्त करना तथाकार है । वसतिका आदि से निकलते समय देवता या गृहस्थ आदि से पूछकर निकलना अथवा पाप क्रियाओं से मन को हटाना आसिका है । वसतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ पर स्थित देव या गृहस्थ आदि की स्वीकृति लेकर अर्थात् निसही शब्द उच्चारण करके पूछकर वहाँ प्रवेश करना और ठहरना अथवा सम्यग्दर्शन आदि में स्थिर भाव रखना निषेधिका है । अपने कार्य - प्रयोजन के आरम्भ में अर्थात् पठन, गमन या योगग्रहण आदि कार्यों के प्रारम्भ में गुरु आदि की वन्दना — करके उनसे पूछना आपृच्छा है । -समान है धर्म अनुष्ठान जिनका वे सधर्मा हैं तथा गुरु शब्द से दीक्षागुरु, शिक्षागुरु, उपदेशदाता गुरु अथवा तपश्चरण में या ज्ञान में अधिक जो गुरु हैं- इन सधर्मा या गुरुओं से कोई उपकरण आदि पहले लिये थे पुनः उन्हें वापस दे दिये, यदि पुनरपि उनको ग्रहण का अभिप्राय हो तो पुनः पूछकर लेना प्रतिपृच्छा है । Aurat कोई पुस्तक आदि वस्तुएँ ली हैं उनके अनुकूल ही उनकी वस्तुओं का सेवन उपयोग करना छन्दन है । अगृहीत - अन्य किसी की पुस्तक आदि वस्तुओं के विषय में आवश्यकता होने पर गुरुओं से सत्कार पूर्वक याचना करना या ग्रहण कर लेने पर विनयपूर्वक उनसे निवेदन करना निमन्त्रणा है । गुरुकुल अर्थात् गुरुओं के आम्नाय - संघ में, गुरुओं के विशाल पादमूल में 'मैं आपका १. गमनम् । २. अविराधयित्वा । ३ क साहम्मिणा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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