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________________ तानाचारधिकारः] [१११ तदभिप्रायानुवर्तनं । सणिमंतणा य-सनिमंत्रणा च सत्कृत्य याचनं च । उपसंपा-उपसम्पत् आत्मनो निवेदनं । नायं पृच्छाशब्दोऽपशब्दः' । उत्सर्गापवादसमावेशात् । एतासामिच्छाकारमिथ्याकार-तथाकारासिका-निषेधिकापृच्छा-प्रतिपृच्छां-छन्दन-सनिमंत्रणोपसम्पदा को विषय इत्यत आह--गाथात्रयेण सम्बन्धः ।।१२।। इ8 इच्छाकारो मिच्छाकारो तहेव अवराहे। पडिसुणणाि तहत्तिय णिग्गमणे आसिया भणिया॥१२६॥ पविसंते य णिसीही प्रापुच्छणियासकज्ज आरंभ। 'साधम्मिणा य गुरुणा पुव्वणिसिट्रह्मि पडिपुच्छा ॥१२७॥ छंदणगहिदे दव्वे अगहिददव्वेणिमंतणा भणिदा। तुह्ममहंतिगुरुकुले प्रादणिसग्गो दु उवसंपा॥१२८॥ 8-इष्टे सम्यग्दर्शनादिके शुभपरिणामे वा । इच्छाकारो-इच्छाकारोऽभ्युपगमो हर्ष स्वेच्छया अथवा अनिषिद्ध जो वस्तु हैं उनको ग्रहण करने के लिए पुनः पूछना प्रतिपृच्छा है। अनुकूल प्रवृत्ति करना छन्दन है अर्थात जिसका जो कुछ भी उपकरण आदि लिया है उसमें उसके अभिप्राय के अनुकूल प्रवर्तन-उपयोग करना छन्दन है। सत्कार करके याचना करना अर्थात् गुरु को आदरपूर्वक नमस्कार आदि करके उनसे किसी वस्तु या आज्ञा को माँगना सनिमन्त्रणा है और अपना निवेदन करना अर्थात् अपने को 'आपका ही हूँ' ऐसा कहना यह उपसंपत् है । यहाँ पर पच्छा शब्द अपशब्द नहीं है क्योंकि उत्सर्ग और अपवाद में उसका समावेश है। भावार्थ-इन दशों का अतिसंक्षिप्त अर्थ यहाँ टीकाकार ने लिया है। आगे स्वयं ग्रन्थकार पहले नाम के अनुरूप अर्थ को बतलाते हुए तीन गाथाओं द्वारा इनका विषय बतलायेंगे, पुनः पृथक्-पृथक् गाथाओं द्वारा इन दसों का विवेचन करेंगे। इन इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपच्छा, छन्दन, संनिमन्त्रणा और उपसंपत् का विषय क्या है अर्थात् ये किस-किस विषय अथवा प्रसंग में किये जाते हैं ? इस प्रकार प्रश्न होने पर आगे तीन गाथाओं से कहते हैं गाथार्थ-इष्ट विषय में इच्छाकार, उसी प्रकार अपराध में मिथ्याकार, प्रतिपादित के विषय में तथा 'ऐसा ही है' ऐसा कथन तथाकार और निकलने में आसिका का कथन किया गया है। प्रवेश करने में निषेधिका तथा अपने कार्य के आरम्भ में आपृच्छा करनी होती है। सहधर्मी साधु और गुरु से पूर्व में ली गई वस्तु को पुनः ग्रहण करने में प्रतिपृच्छा होती है ॥१२६-१२७॥ ग्रहण हुई वस्तु में उसकी अनुकूलता रखना छन्दन है। अगृहीत द्रव्य के विषय में याचना करना निमन्त्रणा है और गुरु के संघ में 'मैं आपका हूँ' ऐसा आत्मसमर्पण करना उपसंपत् कहा गया है ॥१२८॥ आचारवृत्ति–इष्ट अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय में अथवा शुभ परिणाम में १.क 'ब्दो उपशब्द उपसर्ग उत्स। २. क साहम्मि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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