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________________ ६४] [मूलाचारे णिम्ममो णिरहंकारो णिक्कसानो जिदिदिलो धीरो। अणिदाणो दिठिसंपण्णो मरंतो पाराहो होइ॥१०३॥ जिम्ममो-निर्ममः निर्मोहः । जिरहंकारो-अहंकारान्निर्गतः गर्वरहितः। णिक्कसाओनिष्कषायः क्रोधादिरहितः । जिदिदिओ-जितेन्द्रियः नियमितपंचेन्द्रियः । धीरो-धीरः सत्त्ववीर्यसम्पन्नः । अणिदाणो---अनिदान: अनाकांक्षः। दिदिसंपण्णो-दृष्टिसम्पन्नः सम्यग्दर्शनसंप्राप्तः। मरंतो-म्रियमाणः । आराहओ-आराधकः । होइ-भवति । निर्मोहो निर्गर्वः निक्रोधादिजितेन्द्रियो धीरोऽनिदानो दष्टिसंपन्मो म्रियमाण आराधको भवतीति ॥१०३।। कुत एतदित्याह णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसाइणो। संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे ॥१०४॥ णिक्कसायस्स-निष्कषायस्य कषायरहितस्य । वंतस्स-दान्तस्य दान्तेन्द्रियस्य। सूरस्स-शुरस्याकातरस्य । ववसाइणो-व्यवसायो विद्यतेऽस्येति व्यवसायी तस्य चारित्रानुष्ठानपरस्य। संसारभयभीवस्स -संसारभयभीतस्य संसाराभयं तस्माद्भीतस्त्रस्तः संसारभयभीत: तस्य ज्ञातचतुर्गतिदुःखस्वरूपस्य। पच्चक्खाणं-प्रत्याख्यानं आराधना। सुहं-सुखं सुखनिमित्तं । हवे-भवेत्। यतो निष्कषायस्य, दान्तस्य, शूरस्य, व्यवसायिनः, संसारभयभीतस्य, प्रत्याख्यानं सुखनिमित्तं भवेत्ततः तथाभूतो म्रियमाण आराधको भवतीति सम्बन्धः ॥ ०४॥ गाथार्थ-जो ममत्वरहित, अहंकाररहित, कषायरहित, जितेन्द्रिय, धीर, निदानरहित और सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है वह मरण करता हुआ आराधक होता है ॥१०३॥ प्राचारवृत्ति-जो निर्मोह हैं, गर्व रहित हैं, क्रोधादि कषायों से रहित हैं, पंचेन्द्रिय को नियन्त्रित कर चुके हैं, सत्त्व और वीर्य से सम्पन्न होने से धीर हैं, सांसारिक सुखों की आकांक्षा से रहित हैं और सम्यग्दर्शन से सहित हैं वे मरण करते हुए आराधक माने गये हैं। ऐसा क्यों ? इसका उत्तर देते हैं गाथार्थ-जो कषाय रहित है, इन्द्रियों का दमन करनेवाला है, शूर है, पुरुषार्थी है और संसार से भयभीत है उसके सुखपूर्वक प्रत्याख्यान होता है ।।१०४॥ प्राचारवृत्ति-जो कषाय रहित हैं अर्थात् जिनकी संज्वलन कषायें भी मन्द हैं, जो इन्द्रियों के निग्रह में कुशल हैं, शूर हैं अर्थात् कायर नहीं हैं, व्यवसाय जिनके हैं वे व्यवसायी हैं अर्थात् चारित्र के अनुष्ठान में तत्पर हैं, चतुर्गतिरूप संसार के दुःखों का स्वरूप जानकर जो उससे त्रस्त हो चुके हैं ऐसे साधु के प्रत्याख्यान-मरण के समय शरीर-आहार आदि का त्याग सुखपूर्वक अथवा सुखनिमित्तक होता है। इसी हेतु से वे साधु सल्लेखना-मरण करते हुए आराधक हो जाते हैं। १.क दृष्टि सम्यग्दर्शनसम्पन्नः संप्राप्तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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