________________
बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकारः ]
चिरउ सिदबंभयारी पप्फोडेदृण सेसयं कम्मं । अणुपुव्वीय विसुद्धो सुद्धो सिद्धि गद जादि ॥ १०२ ॥
चिरउसिद - चिरं बहुकालं उषितः स्थितः । बंभयारी - ब्रह्म मैथुनानभिलाषं चरति सेवत इति ब्रह्मचारी चिरोषितश्च स ब्रह्मचारी च चिरोषितब्रह्मचारी । अथवा चिरोषितं ब्रह्म चरतीति । पप्फोडे --- प्रस्फोट्य निराकृत्य । सेसयं कम्मं - शेषं च कर्म ज्ञानावरणादि । अणुपुव्वीय – आनुपूर्व्या च क्रमपरिपाट्या अथवायुःक्षयाद्गुणस्थानक्रमेण वा । विसुद्धो – विशुद्धः कर्मकलंकरहितः । सुद्धो - शुद्धः केवलज्ञानादियुक्तः । सिद्धि गाँव जादि - सिद्धि गतिं याति मोक्षं प्राप्नोतीत्यर्थः । अभग्नब्रह्मचारी शेषकं कर्म प्रस्फोट्य, असंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरया च विशुद्धः संजातस्ततः शुद्धो भूत्वा सिद्धि गतिं याति । अथवा अपूर्वा पूर्वपरिणामसन्तत्या च विशुद्धः शुद्धः केवलोपेतः केवलज्ञानं प्राप्य परमस्थानं गच्छतीति ॥ १०२ ॥
अथ आराधनोपायः कथितः, आराधकश्च किं विशिष्टो भवतीत्याह
दूर
गाथार्थ - चिरकाल तक ब्रह्मचर्य का उपासक साधु शेष कर्म को से विशुद्ध होता हुआ शुद्ध होकर सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है ।। १०२
[e३
Jain Education International
प्राचारवृत्ति - जो बहुत काल तक मैथुन की अभिलाषा के त्यागरूप ब्रह्मचर्य में स्थित रहे हैं । अथवा जिन्होंने चिरकाल तक ब्रह्म-आत्मा का आचरण – सेवन किया है । वे चिरकालीन ब्रह्मचारी साधु ज्ञानावरण आदि शेष कर्मों का प्रस्फोटन करके क्रम की परिपाटी अथवा आयु के क्षय से या गुणस्थानों के क्रम से विशुद्धि को वृद्धिंगत करते हुए–कर्मकलंक रहित होते हुए केवलज्ञान आदि गुणों से युक्त होकर पूर्ण शुद्ध हो जाते हैं । पुनः मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं । अथवा जिनका ब्रह्मचर्य कभी भंग नहीं हुआ है ऐसे अखण्ड ब्रह्मचारी महासाधु उसके अनन्तर बचे हुए शेष कर्मों को दूर करके पुनः असंख्यातगुण श्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा होने से विशुद्ध हो जाते हैं । पुनः पूर्ण शुद्ध होकर सिद्धगति को प्राप्त कर लेते हैं । अथवा अपूर्व-अपूर्व परिणामों की सन्तति-परम्परा से विशुद्धि को प्राप्त होते हुए पूर्ण शुद्ध होकर केवलज्ञान को प्राप्त करके परमस्थान प्राप्त कर लेते हैं ।
करके क्रम क्रम
भावार्थ – वह क्षपक दीर्घकाल तक अखण्ड ब्रह्मचर्य के पालन करने से स्वयं बहुत से कर्मों की संवर निर्जरा कर चुका है । अनन्तर इस समय बचे हुए ज्ञानावरण आदि कर्मों का नाश करते हुए केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है अर्थात् यदि वह क्षपक चरम शरीरी है तो वह उसी भव में श्रेणी पर आरोहण कर अपूर्वकरण गुणस्थान में अपूर्व - अपूर्व परिणामों को प्राप्त करके मागे असंख्यात गुणित रूप से कर्मों की मिर्जरा करता हुआ केवली होकर फिर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है । यहाँ ऐसा अभिप्राय है कि आयु के क्षय के साथ-साथ शेष अघाति को भी समाप्त कर देता है ।
यहाँ तक आराधना के उपाय कहे गये हैं, अब आराधक कैसा होता है, सो बताते हैं
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org