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बहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्त वाधिकारः]
चन्द्रकवेध्यनिमित्त जीवेऽविरहितगुणे कृते किंकृतं तेन चन्द्रकवेध्यस्य कर्ताहं
कणयलदा णागलदा विज्जुलदा तहेव कुंदलदा। एदा विय तेण हदा मिथिलाणयरिए महिंदयत्तेण ॥८६॥ सायरगो बल्लहगो कुलदत्तो वड्डमाणगो चेव ।
दिवसेणिक्केण हदा मिहिलाए महिंददत्तण ॥८॥
मिथिलानगर्यां महेन्द्रदत्तेन एताः कनकलतानागलता विद्युल्लतास्तथा कुन्दलता चैकहेलया हताः । तथा तस्यां नगया तेनैव महेन्द्रदत्तेन सागरक-वल्लभक-कुलदत्तक-वर्धमानका हतास्तस्मात् यतिना समाधिमरणे यत्नः कर्तव्यः । कयानिका चात्र व्याख्येया आगमोपदेशात् यत्नाभावे पुनर्यथा एतल्लोकानां भवति तथा यतीनामपि ।।८६-८७॥
"किं तत् ! इत्याह
जहणिज्जावयरहिया गावाओ वररदण'सुपुण्णाम्रो । पट्टणमासण्णाप्रोख पमादमला णिबुड्डंति ॥८॥
ऐसा समझकर उसने क्या किया ? सो बताते हैं
गाथार्थ-कनकलता, नागलता, विद्युल्लता और कुन्दलता-इन चारों को भी उस महेन्द्रदत्त ने मिथिलानगरी में मार दिया। सागरक, बल्लभक, कुलदत्त और वर्धमानक को भी एक ही दिन मिथिलानगरी में महेन्द्रदत ने मार डाला ॥८६-८७॥
प्राचारवृत्ति-मिथिलानगरी में महेन्द्रदत्त ने कनकलता, नागलता, विद्युल्लता और कुन्दलता इनको एक लीलामात्र में मार डाला। तथा उसी नगरी में उसी महेन्द्रदत्त ने सागरक, बल्लभक, कुलदसक और वर्धमानक इनको भी मार डाला। इसलिए यतियों को समाधिमरण में प्रयत्न. करना चाहिए। यहाँ पर आगम के आधार से इन कथाओं का व्याख्यान करना चाहिए। अभिप्राय यह हुआ कि जैसे सावधानी के बिना इन लोगों का मरण हो गया वैसे ही सावधानी के बिना यतियों का भी कुमरण हो जाता है।
विशेष-ये कथाएँ आराधना कथाकोश आदि में उपलब्ध नहीं हो सकीं इसलिए इस विषय का स्पष्टीकरण समझ में नहीं आया है। फिर भी इतना अभिप्राय अवश्य प्रतीत होता है कि ये सब मरण कुमरण हैं क्योंकि इनमें सावधानी नहीं है। ऐसे दृष्टान्तों के द्वारा आचार्य क्षपक को सावधान रहने का ही पुनः पुनः उपदेश दे रहे हैं।
वह सावधानी क्या है ? सो कहते हैं___ गाथार्थ-जैसे उत्तम रत्नों से भरी हुई नौकाएँ नगर के समीप किनारे पर आकर भी, कर्णधार से रहित होने से प्रमाद के कारण डूब जाती हैं ऐसे ही साधु के विषय में समझी ॥८॥
१.
किं तथा । २.क 'णयु।
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