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________________ वृहत्तत्याल्यानसंस्तरस्तवाधिकारः] कल्पते इति ॥२॥ यतो मनसापि सावद्याहारो न योग्योऽतो भवान् शुद्ध-परिणामं कुर्यादित्याचार्यः प्राह पुव्वं कदपरियम्मो अणिदाणो ईहिदण मदिबुद्धी। पच्छा मलिदकसाओ सज्जो मरणं पडिच्छाहि ।८३॥ पुष्वं कदपरियम्मो-पूर्व प्रथमतरं कृतमनुष्ठितं परिकर्म तपोऽनुष्ठानं येनासौ पूर्वकृतपरिकर्मा आदावनुष्ठिततपश्चरणः । अणिदाणो–अनिदान इहलोकपरलोकसुखानाकांक्षः । ईहिदूण-ईहित्वा चेष्टित्वा उद्योगं कृत्वा । मदिबुद्धी-मतिबुद्धिभ्यां प्रत्यक्षानुमानाभ्यां परोक्षप्रत्यक्षसम्पन्नः । पच्छा-पश्चात् । मलियकसाओ-मथितकषाय: क्षमासम्पन्नः । सज्जो-सद्यः तत्परः कृतकृत्यो वा । मरणं-समाधिमृत्यु स्वाध्यायमरणं वा । पडिच्छाहि-प्रतीच्छानुतिष्ठ । विपरिणामान्नरकं गम्यते यतोऽतः प्रत्यक्षपरोक्षप्रमाणाभ्यामागमे निश्चयं कृत्वा पूर्वकृतपरिकर्मानिदानश्च सन् मथितकषायश्च सन् सद्यः मरणं प्रतीच्छेति ॥३॥ पुनरपि शिक्षां ददाति तथापि इस भावना मात्र से पापबन्ध करते हुए वे जीव भी सातवें नरक में चले जाते हैं। इसलिए साधुओं को मन से भी, आगम में कहे गये दोषों सहित अर्थात् सदोष आहार ग्रहण करना युक्त नहीं है। __ जिस कारण मन से भी सावद्य आहार ग्रहण करना योग्य नहीं है इसलिए हे क्षपक ! शद्ध परिणाम करो। ऐसा आचार्य कहते हैं ___ गाथार्थ–मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के द्वारा चेष्टा करके निदान रहित होते हुए हे साधो ! पहले तप का अनुष्ठान करके, अनन्तर कषायों का मथन करके इस समय मरण की प्रतीक्षा करो॥३॥ प्राचारवृत्ति-मति और बुद्धि अर्थात् प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण के ज्ञान से सम्पन्न हुआ साधु चेष्टा करके, उद्योग-पुरुषार्थ करके सबसे पहले परिकर्म-तप का अनुष्ठान कर लेता है, वह इहलोक और परलोक के सुखों की अभिलाषा रूप निदान को नहीं करता है। पश्चात् वही साधु कषायों का मथन करके क्षमा गुण से सम्पन्न हो जाता है । वह सद्यः समाधि में तत्पर हो जाता है अथवा कृतकृत्य हो जाता है। ऐसे साध को आचार्य कहते हैं कि हे क्षपक! अब तम समाधिमरण अथवा स्वाध्यायमरण का अनुष्ठान करो। यहाँ स्वाध्याय मरण से अपने चिन्तन-स्मरण करते हुए मरण करना ऐसा अर्थ है । तात्पर्य यह हुआ कि पूर्व में कहे हुए कन्दर्प आदि भावना रूप या सदोष आहार की इच्छा रूप विपरीत परिणाम से जीव नरक में चला जाता है इसलिए प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण द्वारा आगम में जो कहा गया है उसका निश्चय करके पहले तपश्चरण का अनुष्ठान करो । पुनः निदान भाव रहित होते हुए तथा कषायों का त्याग करते हुए तुम इस समय कृतकृत्य होकर समाधिमरण का अनुष्ठान करो। आचार्य पुनरपि शिक्षा देते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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