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________________ ६८] মুিলাই विराहिए-विराधिते परिभूते । होंति-भवन्ति । सम्यक्त्वे विनाशिते मरणकाले एताः कन्दर्पाभियोग्यकिल्विषस्वमोहासुरदेवदुर्गतयो भवन्तीति । किं तत्कान्दर्प इत्यत आह असत्तमुल्लावेतो' पण्णावेतो य बहुजणं कुणई। कंदप्प रइसमावण्णो कंदप्पेसुउववज्जइ ॥६४॥ असतं-~-असत्यं मिथ्या। उल्लावेतो'---उल्लपन् जल्पन उल्लापयित्वा, पण्णावेतो-प्रज्ञापयन् प्रतिपादयन्, बहुजणं-बहुजनं बहून् प्राणिनः, कुणइं-करोति। कंदप्पं—कान्दपं, रइसमावण्णो-रति समापन्नः प्राप्तो रतिसमापन्नो रागोद्रे केसहितः । कंदप्पेसुकन्दर्पकर्मयोगाद्देवा अपि कन्दर्पा नग्नाचार्यदेवास्तेष, उववज्जेह-उत्पद्यते। यो रतिसमापन्नः असत्यमुल्लपन् तदेव च बहुजनं प्रतिपादयन् कन्दर्पभावनां करोति स कन्दर्पषत्पद्यते इत्यर्थः । अथवा असत्यं जल्पन् तदेव च भावयन् आत्मनो बहुजनं करोति योजयति असत्येन यः स कन्दर्परतिसमापन्न: कन्दर्येषत्पद्यत इत्यर्थः । चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि मरण के समय सम्यक्त्वगुण की विराधना हो जाने पर ये कन्दर्प, अभियोग्य, किल्विष, स्वमोह और असुर इन देवों की पर्यायों में उत्पत्ति हो जाती है। विशेषार्थ-इन कन्दर्प आदि भावनाओं को करने से साधु को सम्यक्त्व रहित असमाधि होने से इन्हीं जाति के देवों में जन्म लेने का प्रसंग हो जाता है। आगे इन्हीं कन्दर्प आदि भावनाओं का लक्षण स्वयं बताते हैं। वह कान्दर्प क्या है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं-- गाथार्थ-जो साधु असत्य बोलता हुआ और उसी को बहुतजनों में प्रतिपादित करता हुआ रागभाव को प्राप्त होता है, कन्दर्प भाव करता है और वह कन्दर्प जाति के देवों में उत्पन्न होता है ॥६४॥ प्राचारवृत्ति-जो राग के उद्रेक से सहित होता हुआ स्वयं असत्य बोलता है और । में उसी का प्रतिपादन करते हए कन्दर्प-भावना को करता है वह कन्दर्प कर्म के निमित्त से कन्दर्प जाति के जो नग्नाचार्य देव हैं उनमें जन्म लेता है। अथवा जो साधु स्वयं असत्य बोलता हुआ और उसी की भावना करता हुआ बहुतजनों को भी अपने समान करता है अर्थात् उन्हें भी असत्य में लगा देता है वह कन्दर्प भावना-रूप राग से युक्त होता हुआ कन्दर्प जाति के देवों में उत्पन्न होता है। विशेषार्थ-अन्यत्र देव जातियों में 'नग्नाचार्य' ऐसा नाम देखने में नहीं आता है। 'मूलाचारप्रदीप' अध्याय १० श्लोक ६१-६२ में 'कन्दर्प जाति के देवों को नग्नाचार्य कहते हैं ऐसा लिखा है। तथा च पं० जिनदास फडकुले सोलापुर ने 'मूलाचार' की हिन्दी टीका में कन्दर्प देवों का अर्थ 'स्तुतिपाठक देव' किया है । यह अर्थ कुछ संगत प्रतीत होता है । १.क 'वितो। २.क 'सुवव। ३. कवितो। ४.क यन्नात्म। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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