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________________ बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकारः] । ६७ का देवदुग्गईओ-का देवदुर्गतयः किविशिष्टा देवदुर्गतयः । का बोही-का बोधिः । केण व-केन च । ण बुज्झए-न बुध्यते। मरणं-मृत्युः । केण व-केन च कारणेन । अणंतपारे-अनन्तोऽपरिमाण: पारः समाप्तिर्यस्यासौ अनन्तपारस्तस्मिन् । संसारे-संसरणे। हिंडए-हिंडते गच्छति । जीवो-जीवः । हे भट्टारक ! का देवदूर्गतयः का च बोधिः, केन च परिणामेन न बुध्यते मरणं, संसारे च केन कारणेन परिभ्रमति जीवः ? क्षपकेण पृष्ट: आचार्यः प्राह कंदप्पमाभिजोग्गं किदिवस सम्मोहमासुरत्तं च। ता देवदुग्गईओ मरणम्मि विराहिए होंति ॥६३॥ द्रव्यभावयोरभेदं कृत्वा चेदमुच्यते। कंदप्पं-कंदर्पस्य भावः कान्दर्पमुपप्लवशीलगुणः । आभिजोग्गंअभियोगस्य भाव: आभियोग्यं तन्त्रमन्त्रादिभीरसादिगार्द्धयं । किव्विस-किल्विषस्य भावः कैलि चरणं । सम्मोहं-स्वस्थ मोहः स्वमोहस्तस्य भावः स्वमोहत्वं, शूनो मोहा इव मोहो वेदोदयो यस्य स श्वमोहस्तस्य भावः श्वमोहत्वं गह मोहन वा वर्तते इति तस्य भावः समोहत्वं' मिथ्यात्वभावनातात्पर्यम् । आसुरत्तं चअसुरत्वं च--असुरस्य भावः असुरत्वं सौद्रपरिणामसहिताचरणं । ता—एताः । देवदुग्गईओ-देवदुर्गतयस्तैगुणस्ताः प्राप्यन्ते इति कृत्वा तद्व्यपदेशः, कारण कार्योपचारात् । मरणम्मि-मरणे मृत्युकाले सम्यक्त्वे. प्राचारवत्ति-हे भट्रारक ! देव दुर्गति का क्या लक्षण है ? बोधि का क्या स्वरूप है ? किस परिणाम से मरण नहीं जाना जाता है ? तथा किन कारणों से यह जीव, जिसका पार पाना कठिन है ऐसे अपार संसार में भ्रमण करता है ? क्षपक के द्वारा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं गाथार्थ-मरण काल में विराधना के हो जाने पर कान्दर्प, आभियोग्य, किल्विषक, स्वमोह और आसुरी ये देवदुर्गतियाँ होती हैं ॥६३।। प्राचारवत्ति—यहाँ पर द्रव्य और भाव में अभेद करके कहा गया है अर्थात ये कन्दर्प आदि भावनाएँ भाव हैं और इनसे होनेवाली उन-उन जाति के देवों की जो पर्यायें हैं वे यहाँ द्रव्य रूप हैं । इन दोनों में अभेद करके ही यहाँ पर इन भावनाओं को देवदुर्गति कह दिया है। कन्दर्प का भाव कान्दर्प है अर्थात् उपप्लव स्वभाववाला गुण (शील और गुणों का नाश करने वाला भाव) कान्दर्प है। अभियोग का भाव आभियोग्य है अर्थात् तन्त्र-मन्त्र आदि के द्वारा रस आदि में गद्धता का होना । किल्विष का भात कैल्विष्य है अर्थात् प्रतिकूल आचरण का होना । अपने में मोह का होना स्वमोह है उसका भाव स्वमोहत्व है, अथवा श्व अर्थात् कुत्ते के मोह के समान मोह वेद का उदय है जिसके वह श्वमोह है उसका भाव श्वमोहत्व है। अथवा मोह के साथ जो रहता है उसका भाव समोहत्व है अर्थात् मिथ्यात्व का होना। असुर के भाव को असुरत्व कहते हैं अर्थात् रौद्र परिणाम सहित आचारण का होना। ये देवदुर्गतियाँ हैं। अर्थात् इन पाँच गुणों से इन्हीं पाँच प्रकार के देवों में जन्म लेना पड़ता है। इसीलिए यहाँ पर इन परिणामों को ही देवदुर्गति कह दिया है । यहाँ पर कारण में कार्य का उपचार समझना १.क त्वं तस्य भावना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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