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मूलगुणाधिकारः ]
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तन्निराक्रिया' ततोऽपगमनं विवेकः । देहे ममत्वनिरासः कायोत्सर्गः । तपोऽनशनादिकम् । असंयम जुगुप्सार्थं प्रव्रज्याहापनं छेदः । पुनश्चारित्रादानं मूलं । कालप्रमाणेन चतुर्वर्ण्यश्रमणसंघाद्वहिष्करणं परिहारः । विपरीत गतस्य मनसः निवर्तनं श्रद्दधानं दर्शनज्ञानचारित्रतपसामतीचारों' अशुभक्रियास्तासामपोहनं विनयः । चारित्रस्य कारणानुमननं वैयावृत्त्यम् । अंगपूर्वाणां सम्यक् पठनं स्वाध्यायः । शुभविषये एकाग्रचिन्तानिरोधनं ध्यानम् । लावद्ययोगेभ्य आत्मनो गोपनं गुप्तिः । सा च मनोवाक्कायक्रियाभेदात्त्रिप्रकारा । एतेषां सर्वेषां तपसां गुप्तीनां च नित्ययुक्तानां च मूलगुणेष्वेवान्तर्भावः । कादाचित्कानां चोत्तरगुणेष्वन्तर्भाव इति तथा सम्यक्त्वज्ञान चारित्राणामपि मूलगुणेष्वन्तर्भावस्तै विना तेपामभावादिति ॥
स्वयं किये हुए अपराध नहीं छिपाना आलोचना है ।
अपने द्वारा किये हुए अशुभ योग की प्रवृत्तियों से हटना प्रतिक्रमण है । आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना तदुभय तप है ।
जिससे अथवा जिसमें अशुभयोग हुआ हो उस वस्तु का छोड़ना विवेक है । शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है ।
अनशन अर्थात् उपवास आदि तपों का अनुष्ठान करना तपप्रायश्चित्त है ।
असंयम से ग्लानि उत्पन्न होने पर दीक्षा के दिन, मास आदि कम करना छेद है । पुनः चारित्र अर्थात् दीक्षा ग्रहण करना मूल है ।
कुछ काल के प्रमाण से चतुविध श्रमणसंघ से साधु का बहिष्कार कर देना परिहार प्रायश्चित्त है ।
विपरीत- मिथ्यात्व को प्राप्त हुए मन को वापस लौटाकर सम्यक्त्व में स्थिर करना श्रद्धान प्रायश्चित्त है ।
ये प्रायश्चित्त तप के दश भेद हुए । अब अन्य विनय आदि अभ्यन्तर तपों को
कहते हैं
दर्शन ज्ञान चारित्र और तप में अतिचाररूप जो अशुभ क्रियाएँ हैं उनका त्याग करना विनय है ।
चारित्र के कारणों का अनुमनन करना वैयावृत्य है ।
अंग और पूर्व का सम्यक् पढ़ना स्वाध्याय है ।
शुभ
विषय में एकाग्र चिन्ता का निरोध करना अर्थात् चित्त को स्थिर करना ध्यान है । इस प्रकार बारह विध तपों का वर्णन हुआ। अब गुप्ति को कहते हैं
सावद्य अर्थात् पाप योग से आत्मा का गोपन - रक्षण करना गुप्ति है। इसके मन, वचन,
और काय की क्रिया के भेद से तीन भेद हो जाते हैं । अर्थात् सावद्य परिणामों से मन को रोकना मनोगुप्ति है, सावद्य वचनों को नहीं बोलना वचनगुप्ति है और सावद्य काययोग से चना गुप्त है । नित्ययुक्त ये तप और गुप्तियाँ मूलगुणों में गर्भित हैं और नैमित्तिक रूप ये उत्तरगुणों में गर्भित हैं । उसी प्रकार सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र भी मूलगुणों में अन्तर्भूत हैं क्योंकि इनके बिना मूलगुण हो ही नहीं सकते ।
१क 'क्रियते ततोपयोगमनं २ क चाराणमशु ।
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