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________________ [मूलाचारे अनशनं नाम अशनत्यागः स च त्रिप्रकारः । मनसा च न भुजे न भोजयामि, भोजने व्यापृतस्य नानुमति करोमि भुजे भुश्व वचसा न भणामीति चतुर्विधाहारस्याभिसन्धिपूर्वकं कायेनादानं न करोमि हस्तसंज्ञया प्रवर्तनं न करोमि नानुमतिसूचनं कायेन करोमि इत्येवं मनोवाक्कायक्रियाणां कर्मोपादानकारणानां त्यागोऽनशनं नाम । तथा योगत्रयेण तप्तिकारिण्या भजिक्रियाया दर्पवाहिन्या निराकृतिरवमोदर्य । तथा आहारसंज्ञाया जयः गहादिगणनान्यायेन वृत्तिपरिसंख्यानं । तथा मनोवाक्कायक्रियाभीरसगोचरगार्द्धत्यजनं रसपरित्यागः। काये सुखाभिलाषत्यजनं कायक्लेशः । चित्तव्याकुलतापराजयो विविक्तशयनासनम् । स्वकृतापराधगृहनत्यजनं आलोचना । स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृत्तिः प्रतिक्रमणं । तदुभयोज्झनमुभयम् । येन यत्र वा अशुभयोगोऽभूत् प्रश्न-तपों का और गुप्तियों का कहाँ पर अन्तर्भाव होता है ? उत्तर-नित्य युक्त-नित्य करने योग्य तप और गुप्तियों का मूलगुणों में अन्तर्भाव हो जाता है और कादाचित्क-कभी-कभी करने योग्य इनका उत्तरगुणों में अन्तर्भाव होता है। तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का भी मूलगुणों में ही अन्तर्भाव माना है क्योंकि इनके विना मूलगुण ही नहीं होते हैं। तप और गुप्तियों का संक्षिप्त लक्षण तप के बारह भेद हैं । अनशन, अवमौदर्य आदि छह बाह्य तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय आदि छह अभ्यन्तर तप हैं। भोजन का त्याग करना अनशन है उसके तीन प्रकार हैं। मैं मन से भोजन नहीं करता न अन्य को कराता हूँ और न भोजन करते हुए अन्य को अनुमोदना ही देता हूँ। तुम भोजन करो ऐसा वचन से नहीं कहता हूँ, न कहलाता हूँ और न अनुमोदना ही देता हूँ। चार प्रकार के आहार को अभिप्रायपूर्वक काय से न मैं ग्रहण करता हूँ, न हाथ से इशारे के प्रवृत्ति करता हूँ और न काय से अनुमति को सूचना करता हूँ इस प्रकार से कर्मों के ग्रहण में कारणभूत ऐसी मन, वचन और काय की क्रियाओं का त्याग करना ही अनशन नाम का तप है। (इन्द्रियों की) तृप्ति और दर्प (प्रमाद) को करने वाले भोजन का मन, वचन, काय से त्याग करना अर्थात् भूख से कम खाना अवमौदर्य तप है। गृह आदि की संख्या के न्याय से अर्थात् गृह पात्र आदि नियम विशेष करके आहार संज्ञा को जीतना वृत्ति-परिसंख्यान तप है। मन-वचन-काय से रसविषयक गृद्धि का त्याग करना रसपरित्याग तप है। शरीर में सुख की अभिलाषा का त्याग करना कायक्लेश तप है। चित्त की व्याकुलता को जीतना अर्थात् चित्त की व्याकुलता के कारणभूत स्त्री, पशु, नपुंसक आदि जहाँ नहीं हैं ऐसे विविक्त-एकान्त स्थान में सोना बैठना यह विविक्त शयनासन तप है। ये छह प्रकार के बाह्य तप हैं। अभ्यन्तर तप में पहला तप प्रायश्चित्त है उसके दश भेद हैं । उनका वर्णन कर रहे हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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