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प्रथमः सर्गः परतिप्रदानप्रवणेन कुर्वता विचित्रवर्णक्रमवृत्ति मुज्ज्वलाम् । गुणानुरागोपनता कृतायतिः प्रसाधिता येन वधूरिव प्रजा ॥५२॥ अतीतसंख्यः परिरब्धकीर्तिभिः शरन्निशानाथमराचिनिर्मलैः।
रुरुत्सुभिर्दोषचमूमिवाखिलैरकारि यस्मिन् समुदायिता गुणैः ॥५३॥ निःशेषितशत्रुसंततेः निःशेषिता निराकृता शत्रूणाम् अरीणां संततिर्येन तस्य । यस्य कनकप्रभस्य । पौरुषं सामर्थ्यम् । अष्टापदवृत्ति अष्टापदस्येव वृत्तिर्यस्य तदविचारितवर्तनम् । नाजायत नाभवत् । जनैङ, प्रादुर्भावे लङ् ॥ ५१ ॥ रतिप्रदानेत्यादि । रतिप्रदानप्रवणेन रत्याः सुरतस्य संतोषस्य च प्रदाने करणे प्रवणेन समर्थेन । उज्ज्वलाम् प्रज्वलाम् । विचित्रवर्णक्रमवृत्तिम्, विचित्रां विविधां वर्णानां जातोना, पक्षेऽद्भू तमकरिकापत्रमाल्यानुलेपनादीनां वा क्रमस्य परिपाटया वृत्ति वर्तनं जीवनं वा। 'स्तुतिरूपयशोक्षरविलेपनद्विजातिशुक्लादिषु वर्णः' इति नानार्थकोशे। कुर्वता विदधता। येन कनकप्रभेण । गुणानुरागोपनता गुणानाम् अनुरागेण प्रीत्योपनता वशंगता। कृतायतिः कृता आयतिः प्रभुत्वं, पक्षे उन्नतिर्यस्याः सा । 'आयति>र्घतायां स्यात् प्रभुताऽऽगामिकालयोः' इत्यभिधानात् । प्रजा जनः । वधूरिव नारीव प्रसाधिता संतोषिता पक्षेऽलंकृता ।। ५२ ।। अतीतेत्यादि । अतोतसंख्यः अतीता अतिक्रान्ता संख्या येषां तैः । परिरब्धकीतिभि: परिरब्धा कीतिर्येषां [यै:] ते ! शरन्निशानाथमरीचिनिर्मलै: शरदः शरत्कालस्य निशानाथस्य चन्द्रस्य मरीचयः कान्तय इव निर्मलैंविमलैः । अखिल: सकलैः। गुणैः । दोषच दोषसेनाम् । रुरुत्सुभिः रोद्भुमिच्छुभिः । यस्मिन् कनकप्रभे । समुदायिता समुदाययुक्तता । अकारि व्यधायि । डुकृञ् करणे कर्मणि लुङ् ॥ ५३ ॥ पराक्रमेत्यादि है, बड़ा दुःखी रहने लगा। आज भी जब उसमें उत्ताल तरंगें उठती हैं और भयानक शब्द होता है तब लगता है मानो वह आज भी अपने कल्लोल-बाहुओंको ऊपर उठाकर करुण क्रन्दन कर रहा है ।। ५० ॥
उसने राजनीतिके ज्ञानसे तथा आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति इन चार विद्याओंके अभ्याससे अपनी बुद्धिको निर्मल बना लिया था। वह जो भी काम करना चाहता था, उसके बारेमें पहले खूब सोच लेता था । फलतः उसके शत्रुओंको परम्परा सर्वथा निर्मूल हो चुकी थी। इसीलिये उसे कभी अष्टापद ( एक हिंसक पशु-देखिये द्विसंधान २,२० ) के समान प्रवृत्ति-युद्धजन्य घोर हिंसा-नहीं करनी पड़ी ॥ ५१ ॥ वह सभीके साथ ऐसा व्यवहार करने में कुशल था, जिससे उनकी प्रेमकी भूख मिटती थी और सन्तोष होता था। उसने ब्राह्मण आदि चारों वर्गोंकी निर्दोष व्यवस्था की थी। इसीलिए सारी उन्नतिशील प्रजा उसके गुणोंसे उसके पास खिची चली आती थी। इस तरह उसने अपनी प्रजाको वश में कर लिया था। जैसे सम्भोगकी कलामें कुशल पति अपनी नववधूको उसके ललाट, कपोल और स्तन आदि अङ्गोंमें रंग-विरंगे नाना प्रकारके चित्र बनाकर अपने सौन्दर्य आदि गुणोंसे आकृष्ट कर उसे अपने वशमें कर लेता है ।। ५२ ।। जैसे एक सेना अपनी विरोधिनी सेनाको जीतनेके लिए आपसमें संगठन करती है व योग्य स्थानमें स्थित होकर डटकर प्रतीकार करती है। इसी तरह शरत्कालीन चन्द्रमाके निर्मल और कोति उत्पन्न करनेवाले अगणित गुण मानो दोषोंकी सेनाको रोकनेके लिए उसे राजाके भीतर संगठित हुए थे ।। ५३ ॥
१. अ रतिप्रदाने प्र। २. अ क्रम-वृद्धिमु। ३. आ परिलब्ध । ४. श स 'प्रज्वला' नास्ति । ५. श स अतिक्रान्ताः । ६. श स परिलब्ध । ७. श स परिलब्धा । ८. = परिलब्धा कोतियँस्ते तैः ।
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