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प्रस्तावना
नामकरण - साहित्यदर्पण (६, ३२४ ) के अनुसार महाकाव्यका नाम कविके नामपर जैसे माघ; वर्ण्यविषयके नामपर जैसे कुमारसम्भव; नायकके नामपर जैसे विक्रमाङ्कदेव चरित; अथवा रघुवंश आदिकी भाँति वंश आदिके नामपर भी रखा जाता है । प्रस्तुत चं० च० का नामकरण इसके नायक चन्द्रप्रभके नामके आधारपर हुआ है, जो सद्वंश क्षत्रिय रहे ।
मङ्गलाचरण - काव्यादर्श ( १,१४ ) के अनुसार महाकाव्यका प्रारम्भ आशीर्वादात्मक किंवा नमस्कारात्मक मङ्गलाचरण से या सीधे वस्तुनिर्देश से भी होता है । चं० च० का प्रारम्भ आशीर्वादात्मक ( तीन पद्य ) और नमस्करात्मक ( चतुर्थ पद्य ) मङ्गलाचरण से हुआ है ।
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चं० च० का तुलनात्मक अध्ययन -- रघुवंश, किरातार्जुनीयम्, माघ और नैषधीयचरित — इन चार महाकाव्यों की विद्वत्संसार में विशेष ख्याति है । यहाँ इन्हींके साथ चं० च० के कुछ अंशोंका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत है ।
१. मङ्गलाचरण - किरात, माघ और नैषधका प्रारम्भ वस्तुनिर्देशसे हुआ है । इसी में मङ्गलाचरणकी कल्पना की गयी है, जैसा कि उनकी टीकाओंसे ज्ञात होता है । रघुवंशमें कालिदासने नमस्कारात्मक मङ्गलाचरण किया है । इसमें उन्होंने अपने आराध्य पार्वती और परमेश्वर ( शिवजी ) को अभिवादन किया है । इसका मुख्य उद्देश्य शब्द अर्थका ज्ञान प्राप्त करना है। वीरनन्दीने जगत्कल्याणके उद्देश्यसे चं० च० के प्रथम पद्य में ऋषभदेवको, लोकशान्तिके उद्देश्य से द्वितीय पद्य में चन्द्रप्रभको, आत्मशान्तिके उद्देश्य से तीसरे पद्य में शान्तिनाथको और विशिष्ट गुणोंकी प्राप्तिके उद्देश्यसे चौथे पद्य में महावीरको नमस्कार किया है । मङ्गलाचरणके इन पद्योंसे अभिव्यक्त उदात्तभावनाकी दृष्टिसे वीरनन्दी कालिदास, भारवि, माघ और श्रीहर्ष - -इन चारों कवियोंसे आगे हैं ।
२. सज्जन - दुर्जनों का वर्णन - रघुवंश आदि चारों महाकाव्यों में सज्जन - दुर्जनों का वर्णन नहीं है, पर चं० च० ( १, ७-८ ) में है । इस प्रसङ्ग में एक मार्मिक बात यह भी द्रष्टव्य है कि वीरनन्दीने दुर्जनों को भी गुरु मानकर नमन किया है ।
२७. वियोग १०, ७०-७३ । २८. सुरत १०, ४२-६१ । २९. पुष्पावचय ९, २२-२६ । ३०. जलक्रीड़ा ९, २७-५८ ।
मन्त्रणाके प्रसङ्गमें अमात्यों और प्रमाणके प्रसङ्ग में सेनापतियोंकी चर्चा की गयी है, पर स्वयंवर तथा विवाहकी भाँति इनका भी स्वतन्त्र रूपसे कोई वर्णन चं० च० में नहीं किया गया । मृगयाके स्थान में पुष्पावचय वर्णित है, जो अलङ्कारशास्त्र की दृष्टिसे ठीक है ।
१. चं० च० के मङ्गलाचरण के क्रम में विशेषता है । इस युग के आदिमें प्रथमतः धर्मतीर्थका प्रवर्तन करनेसे ऋषभदेवको, प्रस्तुत कृतिके नायक होनेसे चन्द्रप्रभको, कृतिको निर्विघ्न समाप्ति के लिए शान्तिनाथको और वर्तमान धर्मतीर्थंके नायक होने से महावीरको नमस्कार किया गया है, जो युक्तिसङ्गत है । वीरनन्दीके इस क्रमने इनके उत्तरवर्ती हरिचन्द्र एवं अर्हदास आदि अनेक कवियोंको प्रभावित किया है। चं० च० का प्रारम्भ 'श्री' शब्द से हुआ है । जहाँतक मैं जानता हूँ यह परम्परा भारविसे प्रारम्भ हुई है । २. आचार्य गुणभद्रने आत्मानुशासन ( श्लो० १४१ ) में लिखा है - कोई गुरु शिष्टतावश अपने शिष्य के दोषोंका, औरोंको ज्ञात हैं, यह सोचकर उद्घाटन न करे - छिपाये रहे कि सन्मार्ग में प्रवर्तन करानेसे कभी यह स्वयं ही उन्हें छोड़ देगा, और इसी बीच यदि वह दिवंगत हो जाता है तो उसका वह शिष्य सदोष ही बना रहेगा । फिर कभी कोई मुँहफट खल, जो दूसरोंके अणुप्रमाण भी दोषोंको पर्वताकार में देखता है, उसके दोषों को प्रकट कर दे तो उसके मन में यह बात घर किये बिना नहीं रहेगी कि उसके गुरु तो कोरे गुरु ही रहे, सच्चा गुरु तो यह खल है जिसके निपुण समीक्षणसे उसकी आँखें खुलीं — दोषोंका भान हुआ ।
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